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Ashtavakra Gita

by Bikram Aryal
137 minutes read
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1: Instruction on Self-Realization

Janaka said:

1.1
Master,
how is Knowledge to be achieved, detachment acquired,
liberation attained?

वयोवृद्ध राजा जनक, बालक अष्टावक्र से पूछते हैं – हे प्रभु, ज्ञान की प्राप्ति कैसे होती है, मुक्ति कैसे प्राप्त होती है, वैराग्य कैसे प्राप्त किया जाता है, ये सब मुझे बताएं॥१॥

जनक उवाच – कथं ज्ञानमवाप्नोति, कथं मुक्तिर्भविष्यति।

वैराग्य च कथं प्राप्तमेतद ब्रूहि मम प्रभो॥१-१॥

Ashtavakra said:

1.2
To be free,
shun the experiences of the senses
like poison.
Turn your attention to
forgiveness, sincerity, kindness, simplicity, truth.

श्री अष्टावक्र उत्तर देते हैं – यदि आप मुक्ति चाहते हैं तो अपने मन से विषयों (वस्तुओं के उपभोग की इच्छा) को विष की तरह त्याग दीजिये। क्षमा, सरलता, दया, संतोष तथा सत्य का अमृत की तरह सेवन कीजिये॥२॥

अष्टावक्र उवाच – मुक्तिमिच्छसि चेत्तात्, विषयान विषवत्त्यज।

क्षमार्जवदयातोष, सत्यं पीयूषवद्भज॥१-२॥

1.3
You are not earth, water, fire or air. Nor are you empty space. Liberation is to know yourself
as Awareness alone—
the Witness of these.

आप न पृथ्वी हैं, न जल, न अग्नि, न वायु अथवा आकाश ही हैं। मुक्ति के लिए इन तत्त्वों के साक्षी, चैतन्यरूप आत्मा को जानिए

न पृथ्वी न जलं नाग्निर्न वायुर्द्यौर्न वा भवान्।

एषां साक्षिणमात्मानं चिद्रूपं विद्धि मुक्तये॥१-३॥

1.4
Abide in Awareness
with no illusion of person.
You will be instantly free and at peace.

यदि आप स्वयं को इस शरीर से अलग करके, चेतना में विश्राम करें तो तत्काल ही सुख, शांति और बंधन मुक्त अवस्था को प्राप्त होंगे

यदि देहं पृथक् कृत्य चिति विश्राम्य तिष्ठसि।

अधुनैव सुखी शान्तो बन्धमुक्तो भविष्यसि॥१-४॥

1.5
You have no caste or duties.
You are invisible, unattached, formless. You are the Witness of all things.
Be happy.

आप ब्राह्मण आदि सभी जातियों अथवा ब्रह्मचर्य आदि सभी आश्रमों से परे हैं तथा आँखों से दिखाई न पड़ने वाले हैं। आप निर्लिप्त, निराकार और इस विश्व के साक्षी हैं, ऐसा जान कर सुखी हो जाएँ॥५॥

न त्वं विप्रादिको वर्ण: नाश्रमी नाक्षगोचर:।

असङगोऽसि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव॥१-५॥

1.6

Right and wrong, pleasure and pain, exist in mind only.They are not your concern.You neither do nor enjoy.You are free.

धर्म, अधर्म, सुख, दुःख मस्तिष्क से जुड़ें हैं, सर्वव्यापक आप से नहीं। न आप करने वाले हैं और न भोगने वाले हैं, आप सदा मुक्त ही हैं॥६॥

धर्माधर्मौ सुखं दुखं मानसानि न ते विभो।

न कर्तासि न भोक्तासि मुक्त एवासि सर्वदा॥१-६॥

1.7
You are the Solitary Witness
of All That Is,
forever free.
Your only bondage is not seeing This.

आप समस्त विश्व के एकमात्र दृष्टा हैं, सदा मुक्त ही हैं, आप का बंधन केवल इतना है कि आप दृष्टा किसी और को समझते हैं॥७॥

एको द्रष्टासि सर्वस्य मुक्तप्रायोऽसि सर्वदा।

अयमेव हि ते बन्धो द्रष्टारं पश्यसीतरम्॥१-७॥

1.8
The thought: “I am the doer”
is the bite of a poisonous snake. To know: “I do nothing”
is the wisdom of faith.
Be happy.

अहंकार रूपी महासर्प के प्रभाववश आप ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसा मान लेते हैं। ‘मैं कर्ता नहीं हूँ’, इस विश्वास रूपी अमृत को पीकर सुखी हो जाइये॥८॥

अहं कर्तेत्यहंमान महाकृष्णाहिदंशितः।

नाहं कर्तेति विश्वासामृतं पीत्वा सुखं भव॥१-८॥

1.9
A single understanding:
“I am the One Awareness,” consumes all suffering
in the fire of an instant.
Be happy.

मैं एक, विशुद्ध ज्ञान हूँ, इस निश्चय रूपी अग्नि से गहन अज्ञान वन को जला दें, इस प्रकार शोकरहित होकर सुखी हो जाएँ॥९॥

एको विशुद्धबोधोऽहं इति निश्चयवह्निना।

प्रज्वाल्याज्ञानगहनं वीतशोकः सुखी भव॥१-९॥

1.10
You are unbounded Awareness— Bliss, Supreme Bliss–
in which the universe appears
like the mirage of a snake in a rope. Be happy.

जहाँ ये विश्व रस्सी में सर्प की तरह अवास्तविक लगे, उस आनंद, परम आनंद की अनुभूति करके सुख से रहें ॥१०॥

यत्र विश्वमिदं भाति कल्पितं रज्जुसर्पवत्।

आनंदपरमानन्दः स बोधस्त्वं सुखं चर॥१-१०॥

1.11
It is true what they say:

“You are what you think.”
If you think you are bound you are bound. If you think you are free you are free.

स्वयं को मुक्त मानने वाला मुक्त ही है और बद्ध मानने वाला बंधा हुआ ही है, यह कहावत सत्य ही है कि जैसी बुद्धि होती है वैसी ही गति होती है॥११॥

मुक्ताभिमानी मुक्तो हि बद्धो बद्धाभिमान्यपि।

किवदन्तीह सत्येयं या मतिः सा गतिर्भवेत्॥१-११॥

1.12
You are Self—the Solitary Witness. You are perfect, all-pervading, One. You are free, desireless, forever still. The universe is but a seeming in You.

आत्मा साक्षी, सर्वव्यापी, पूर्ण, एक, मुक्त, चेतन, अक्रिय, असंग, इच्छा रहित एवं शांत है। भ्रमवश ही ये सांसारिक प्रतीत होती है॥१२॥

आत्मा साक्षी विभुः पूर्ण एको मुक्तश्चिदक्रियः।

असंगो निःस्पृहः शान्तो भ्रमात्संसारवानिव॥१-१२॥

1.13
Meditate on this: “I am Awareness alone–Unity itself.” Give up the idea that you are separate, a person,
that there is within and without.

अपरिवर्तनीय, चेतन व अद्वैत आत्मा का चिंतन करें और ‘मैं’ के भ्रम रूपी आभास से मुक्त होकर, बाह्य विश्व की अपने अन्दर ही भावना करें॥१३॥

कूटस्थं बोधमद्वैत- मात्मानं परिभावय।

आभासोऽहं भ्रमं मुक्त्वा भावं बाह्यमथान्तरम्॥१-१३॥

1.14
You have long been bound thinking:
“I am a person.”
Let the knowledge: “I am Awareness alone” be the sword that frees you.

हे पुत्र! बहुत समय से आप ‘मैं शरीर हूँ’ इस भाव बंधन से बंधे हैं, स्वयं को अनुभव कर, ज्ञान रूपी तलवार से इस बंधन को काटकर सुखी हो जाएँ॥१४॥

देहाभिमानपाशेन चिरं बद्धोऽसि पुत्रक।

बोधोऽहं ज्ञानखंगेन तन्निष्कृत्य सुखी भव॥१-१४॥

1.15
You are now and forever
free, luminous, transparent, still. The practice of meditation keeps one in bondage.

आप असंग, अक्रिय, स्वयं-प्रकाशवान तथा सर्वथा-दोषमुक्त हैं। आपका ध्यान द्वारा मस्तिस्क को शांत रखने का प्रयत्न ही बंधन है॥१५॥

निःसंगो निष्क्रियोऽसि त्वं स्वप्रकाशो निरंजनः।

अयमेव हि ते बन्धः समाधिमनुतिष्ठति॥१-१५॥

1.16
You are pure Consciousness— the substance of the universe. The universe exists within you. Don’t be small-minded.

यह विश्व तुम्हारे द्वारा व्याप्त किया हुआ है, वास्तव में तुमने इसे व्याप्त किया हुआ है। तुम शुद्ध और ज्ञानस्वरुप हो, छोटेपन की भावना से ग्रस्त मत हो॥१६॥

त्वया व्याप्तमिदं विश्वं त्वयि प्रोतं यथार्थतः।

शुद्धबुद्धस्वरुपस्त्वं मा गमः क्षुद्रचित्तताम्॥१-१६॥

1.17
You are unconditioned, changeless, formless. You are solid, unfathomable, cool.
Desire nothing.
You are Consciousness.

आप इच्छारहित, विकाररहित, घन (ठोस), शीतलता के धाम, अगाध बुद्धिमान हैं, शांत होकर केवल चैतन्य की इच्छा वाले हो जाइये॥१७॥

निरपेक्षो निर्विकारो निर्भरः शीतलाशयः।

अगाधबुद्धिरक्षुब्धो भव चिन्मात्रवासन:॥१-१७॥

1.18
That which has form is not real. Only the formless is permanent. Once this is known,
you will not return to illusion.

आकार को असत्य जानकर निराकार को ही चिर स्थायी मानिये, इस तत्त्व को समझ लेने के बाद पुनः जन्म लेना संभव नहीं है॥१८॥

साकारमनृतं विद्धि निराकारं तु निश्चलं।

एतत्तत्त्वोपदेशेन न पुनर्भवसंभव:॥१-१८॥

1.19
Just as a mirror exists
both within and without
the image reflected,
the Supreme Self exists
both within and without the body.

जिस प्रकार दर्पण में प्रतिबिंबित रूप उसके अन्दर भी है और बाहर भी, उसी प्रकार परमात्मा इस शरीर के भीतर भी निवास करता है और उसके बाहर भी॥१९॥

यथैवादर्शमध्यस्थे रूपेऽन्तः परितस्तु सः।

तथैवाऽस्मिन् शरीरेऽन्तः परितः परमेश्वरः॥१-१९॥

1.20
Just as the same space exists both within and without a jar, the timeless, all-pervasive One exists as Totality.

जिस प्रकार एक ही आकाश पात्र के भीतर और बाहर व्याप्त है, उसी प्रकार शाश्वत और सतत परमात्मा समस्त प्राणियों में विद्यमान है॥२०॥

एकं सर्वगतं व्योम बहिरन्तर्यथा घटे।

नित्यं निरन्तरं ब्रह्म सर्वभूतगणे तथा॥१-२०॥

2: Joy of Self-Realization

Janaka said:

2.1
I am now spotless and at peace– Awareness beyond Consciousness. All this time
I have been duped by illusion.

राजा जनक कहते हैं – आश्चर्य! मैं निष्कलंक, शांत, प्रकृति से परे, ज्ञान स्वरुप हूँ, इतने समय तक मैं मोह से संतप्त किया गया॥१॥

जनक उवाच – अहो निरंजनः शान्तो बोधोऽहं प्रकृतेः परः।

एतावंतमहं कालं मोहेनैव विडम्बितः॥२-१॥

2.2
By this light alone
the body and the universe appear. I am Everything
or Nothing.

जिस प्रकार मैं इस शरीर को प्रकाशित करता हूँ, उसी प्रकार इस विश्व को भी। अतः मैं यह समस्त विश्व ही हूँ अथवा कुछ भी नहीं॥२॥

यथा प्रकाशयाम्येको देहमेनो तथा जगत्।

अतो मम जगत्सर्वम- थवा न च किंचन॥२-२॥

2.3
Seeing there is no
universe or body,
by grace the Self is revealed.

अब शरीर सहित इस विश्व को त्याग कर किसी कौशल द्वारा ही मेरे द्वारा परमात्मा का दर्शन किया जाता है॥३॥

सशरीरमहो विश्वं परित्यज्य मयाऽधुना।

कुतश्चित् कौशलादेव परमात्मा विलोक्यते॥२-३॥

2.4
As waves, foam and bubbles
are not different from water,
so the universe emanating from Self is not different from Self.

जिस प्रकार पानी लहर, फेन और बुलबुलों से पृथक नहीं है उसी प्रकार आत्मा भी स्वयं से निकले इस विश्व से अलग नहीं है॥४॥

यथा न तोयतो भिन्नास्- तरंगाः फेन बुदबुदाः।

आत्मनो न तथा भिन्नं विश्वमात्मविनिर्गतम् ॥२-४॥

2.5
Look closely at cloth, you see only threads. Look closely at creation, you see only Self.

जिस प्रकार विचार करने पर वस्त्र तंतु (धागा) मात्र ही ज्ञात होता है, उसी प्रकार यह समस्त विश्व आत्मा मात्र ही है॥५॥

तंतुमात्रो भवेदेव पटो यद्वद्विचारितः।

आत्मतन्मात्रमेवेदं तद्वद्विश्वं विचारितम्॥२-५॥

2.6
As sweetness
pervades sugarcane juice,
I am the essence of creation.

जिस प्रकार गन्ने के रस से बनी शक्कर उससे ही व्याप्त होती है, उसी प्रकार यह विश्व मुझसे ही बना है और निरंतर मुझसे ही व्याप्त है॥६॥

यथैवेक्षुरसे क्लृप्ता तेन व्याप्तैव शर्करा।

तथा विश्वं मयि क्लृप्तं मया व्याप्तं निरन्तरम्॥२-६॥

2.7
Not seeing Self, the world is materialized. Seeing Self, the world is vanished.
A rope is not a snake,
but can appear to be.

आत्मा अज्ञानवश ही विश्व के रूप में दिखाई देती है, आत्म-ज्ञान होने पर यह विश्व दिखाई नहीं देता है। रस्सी अज्ञानवश सर्प जैसी दिखाई देती है, रस्सी का ज्ञान हो जाने पर सर्प दिखाई नहीं देता है॥७॥

आत्माऽज्ञानाज्जगद्भाति आत्मज्ञानान्न भासते।

रज्जवज्ञानादहिर्भाति तज्ज्ञानाद्भासते न हि॥ २-७॥

2.8
I am not other than Light. The universe manifests at my glance.

प्रकाश मेरा स्वरुप है, इसके अतिरिक्त मैं कुछ और नहीं हूँ। वह प्रकाश जैसे इस विश्व को प्रकाशित करता है वैसे ही इस “मैं” भाव को भी॥८॥

प्रकाशो मे निजं रूपं नातिरिक्तोऽस्म्यहं ततः।

यदा प्रकाशते विश्वं तदाऽहंभास एव हि॥ २-८॥

2.9
The mirage of universe appears in me as silver appears in mother-of-pearl, as a snake appears in a rope,
as water appears on a desert horizon.

आश्चर्य, यह कल्पित विश्व अज्ञान से मुझमें दिखाई देता है जैसे सीप में चाँदी, रस्सी में सर्प और सूर्य किरणों में पानी॥९॥

अहो विकल्पितं विश्वंज्ञानान्मयि भासते।

रूप्यं शुक्तौ फणी रज्जौ वारि सूर्यकरे यथा॥ २-९॥

2.10
As a pot returns to clay,
a wave to water,
a bracelet to gold,
so will the universe return to Me.

मुझसे उत्पन्न हुआ विश्व मुझमें ही विलीन हो जाता है जैसे घड़ा मिटटी में, लहर जल में और कड़ा सोने में विलीन हो जाता है॥१०॥

मत्तो विनिर्गतं विश्वं मय्येव लयमेष्यति।

मृदि कुम्भो जले वीचिः कनके कटकं यथा॥ २-१०॥

2.11
I am wonderful indeed–
beyond adoration.
I cannot decay nor ever die,
though God and all the universe should perish to the last blade of grass.

आश्चर्य है, मुझको नमस्कार है, समस्त विश्व के नष्ट हो जाने पर भी जिसका विनाश नहीं होता, जो तृण से ब्रह्मा तक सबका विनाश होने पर भी विद्यमान रहता है॥११॥

अहो अहं नमो मह्यं विनाशो यस्य नास्ति मे।

ब्रह्मादिस्तंबपर्यन्तं जगन्नाशोऽपि तिष्ठतः॥ २-११॥

2.12
I am wonderful indeed– beyond adoration.
Even with a body I am One. I neither come nor go.
I am everywhere at once.

आश्चर्य है, मुझको नमस्कार है, मैं एक हूँ, शरीर वाला होते हुए भी जो न कहीं जाता है और न कहीं आता है और समस्त विश्व को व्याप्त करके स्थित है॥१२॥

अहो अहं नमो मह्यं एकोऽहं देहवानपि।

क्वचिन्न गन्ता नागन्ता व्याप्य विश्वमवस्थितः॥ २-१२॥

2.13
I am wonderful indeed– beyond adoration.
I am astounded at my powers. The universe appears within me but I do not touch it.

आश्चर्य है, मुझको नमस्कार है, जो कुशल है और जिसके समान कोई और नहीं है, जिसने इस शरीर को बिना स्पर्श करते हुए इस विश्व को अनादि काल से धारण किया हुआ है॥१३॥

अहो अहं नमो मह्यं दक्षो नास्तीह मत्समः।

असंस्पृश्य शरीरेण येन विश्वं चिरं धृतम्॥२-१३॥

2.14
I am wonderful indeed–
beyond adoration.
I am everything thought or spoken, and have nothing.

आश्चर्य है, मुझको नमस्कार है, जिसका यह कुछ भी नहीं है अथवा जो भी वाणी और मन से समझ में आता है वह सब जिसका है॥१४॥

अहो अहं नमो मह्यं यस्य मे नास्ति किंचन।

अथवा यस्य मे सर्वं यद् वाङ्मनसगोचरम्॥२-१४॥

2.15
In Reality,
knowledge, the knower, and the knowable do not exist.
I am the transparent Self
in which through ignorance
they appear.

ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता यह तीनों वास्तव में नहीं हैं, यह जो अज्ञानवश दिखाई देता है वह निष्कलंक मैं ही हूँ॥१५॥

ज्ञानं ज्ञेयं तथा ज्ञाता त्रितयं नास्ति वास्तवं।

अज्ञानाद् भाति यत्रेदं सोऽहमस्मि निरंजनः॥ २-१५॥

2.16
Looking at One and seeing many
is the cause of all misery.
The only cure is to realize
what is seen is not there.
I am One—aware, blissful, immaculate.

द्वैत (भेद) सभी दुखों का मूल कारण है।
इसकी इसके अतिरिक्त कोई और औषधि नहीं है कि यह सब जो दिखाई दे रहा है वह सब असत्य है।
मैं एक, चैतन्य और निर्मल हूँ॥१६॥

द्वैतमूलमहो दुःखं नान्य- त्तस्याऽस्ति भेषजं।

दृश्यमेतन् मृषा सर्वं एकोऽहं चिद्रसोमलः॥ २-१६॥

2.17
I am unbounded Awareness.
Only in imagination do I have limits. Reflecting on this,
I abide in the Absolute.

मैं केवल ज्ञान स्वरुप हूँ, अज्ञान से ही मेरे द्वारा स्वयं में अन्य गुण कल्पित किये गए हैं, ऐसा विचार करके मैं सनातन और कारणरहित रूप से स्थित हूँ॥१७॥

बोधमात्रोऽहमज्ञानाद् उपाधिः कल्पितो मया।

एवं विमृशतो नित्यं निर्विकल्पे स्थितिर्मम॥ २-१७॥

2.18
I am neither free nor bound. The illusion of such things has fallen into disbelief. Though I contain creation, it has no substance.

न मुझे कोई बंधन है और न कोई मुक्ति का भ्रम। मैं शांत और आश्रयरहित हूँ। मुझमें स्थित यह विश्व भी वस्तुतः मुझमें स्थित नहीं है॥१८॥

न मे बन्धोऽस्ति मोक्षो वा भ्रान्तिः शान्तो निराश्रया।

अहो मयि स्थितं विश्वं वस्तुतो न मयि स्थितम्॥२-१८॥

2.19
Having seen for certain
that this universe and body
is without form or substance,
I am revealed as Awareness alone. Imagination has no place here.

यह निश्चित है कि इस शरीर सहित यह विश्व अस्तित्वहीन है, केवल शुद्ध, चैतन्य आत्मा का ही अस्तित्व है। अब इसमें क्या कल्पना की जाये॥१९॥

सशरीरमिदं विश्वं न किंचिदिति निश्चितं।

शुद्धचिन्मात्र आत्मा च तत्कस्मिन् कल्पनाधुना॥२-१९।

2.20
The body exists only in imagination, as do heaven and hell,
bondage, freedom, fear.
Are these my concern?
I, who am pure Awareness?

शरीर, स्वर्ग, नरक, बंधन, मोक्ष और भय ये सब कल्पना मात्र ही हैं, इनसे मुझ चैतन्य स्वरुप का क्या प्रयोजन है॥२०॥

शरीरं स्वर्गनरकौ बन्धमोक्षौ भयं तथा।

कल्पनामात्रमेवैतत् किं मे कार्यं चिदात्मनः॥ २-२०॥

2.21
I see no differences or separation. Even the multitudes appear
as a single formless desert.
To what should I cling?

आश्चर्य कि मैं लोगों के समूह में भी दूसरे को नहीं देखता हूँ, वह भी निर्जन ही प्रतीत होता है। अब मैं किससे मोह करूँ॥२१॥

अहो जनसमूहेऽपि न द्वैतं पश्यतो मम।

अरण्यमिव संवृत्तं क्व रतिं करवाण्यहम्॥२-२१॥

2.22
I am not the body.
I do not have a body.
I am Awareness, not a person. My thirst for life bound me
to a seeming of life.

न मैं शरीर हूँ न यह शरीर ही मेरा है, न मैं जीव हूँ , मैं चैतन्य हूँ। मेरे अन्दर जीने की इच्छा ही मेरा बंधन थी॥२२॥

नाहं देहो न मे देहो जीवो नाहमहं हि चित्।

अयमेव हि मे बन्ध आसीद्या जीविते स्पृहा॥ २-२२॥

2.23
In the limitless ocean of Myself
the winds of the mind
roil the myriad waves of the world.

आश्चर्य, मुझ अनंत महासागर में चित्तवायु उठने पर ब्रह्माण्ड रूपी विचित्र तरंगें उपस्थित हो जाती हैं॥२३॥

अहो भुवनकल्लोलै- र्विचित्रैर्द्राक् समुत्थितं।

मय्यनंतमहांभोधौ चित्तवाते समुद्यते॥ २-२३॥

2.24
But when the wind subsides
in the limitless ocean
the ark of personhood is swallowed up, along with the universe it carries.

मुझ अनंत महासागर में चित्तवायु के शांत होने पर जीव रूपी वणिक का संसार रूपी जहाज जैसे दुर्भाग्य से नष्ट हो जाता है॥२४॥

मय्यनंतमहांभोधौ चित्तवाते प्रशाम्यति।

अभाग्याज्जीववणिजो जगत्पोतो विनश्वरः॥ २-२४॥

2.25
And how wonderful it is!
In the limitless ocean of Myself, waves of beings
arise, collide, play for a time, then disappear–as is their nature.

आश्चर्य, मुझ अनंत महासागर में जीव रूपी लहरें उत्पन्न होती हैं, मिलती हैं, खेलती हैं और स्वभाव से मुझमें प्रवेश कर जाती हैं॥२५॥

मय्यनन्तमहांभोधा- वाश्चर्यं जीववीचयः।

उद्यन्ति घ्नन्ति खेलन्ति प्रविशन्ति स्वभावतः॥२-२५॥

3: Test of Self-Realization

Ashtavakra said:

3.1
Having realized yourself as One, being serene and indestructible, why do you desire wealth?

अष्टावक्र कहते हैं – आत्मा को अविनाशी और एक जानो । उस आत्म-ज्ञान को प्राप्त कर, किसी बुद्धिमान व्यक्ति की रूचि धन अर्जित करने में कैसे हो सकती है॥१॥

अष्टावक्र उवाच – अविनाशिनमात्मानं एकं विज्ञाय तत्त्वतः।

तवात्मज्ञानस्य धीरस्य कथमर्थार्जने रतिः॥३- १॥

3.2
Just as imagining silver in mother-of-pearl, causes greed to arise,
so does ignorance of Self
cause desire for illusion.

स्वयं के अज्ञान से भ्रमवश विषयों से लगाव हो जाता है जैसे सीप में चाँदी का भ्रम होने पर उसमें लोभ उत्पन्न हो जाता है॥२॥

आत्माज्ञानादहो प्रीतिर्विषयभ्रमगोचरे।

शुक्तेरज्ञानतो लोभो यथा रजतविभ्रमे॥३- २॥

3.3
Having realized yourself as That
in which the waves of the world rise and fall, why do you run around in turmoil?

सागर से लहरों के समान जिससे यह विश्व उत्पन्न होता है, वह मैं ही हूँ जानकर तुम एक दीन जैसे कैसे भाग सकते हो॥३॥

विश्वं स्फुरति यत्रेदं तरङ्गा इव सागरे।

सोऽहमस्मीति विज्ञाय किं दीन इव धावसि॥३- ३॥

3.4
Having realized yourself as pure Awareness, as beautiful beyond description,
how can you remain a slave to lust?

यह सुनकर भी कि आत्मा शुद्ध, चैतन्य और अत्यंत सुन्दर है तुम कैसे जननेंद्रिय में आसक्त होकर मलिनता को प्राप्त हो सकते हो॥४॥

श्रुत्वापि शुद्धचैतन्य आत्मानमतिसुन्दरं।

उपस्थेऽत्यन्तसंसक्तो मालिन्यमधिगच्छति॥३- ४॥

3.5
It is strange
that in a sage who has realized
Self in All and All in Self
this sense of ownership should continue.

सभी प्राणियों में स्वयं को और स्वयं में सब प्राणियों को जानने वाले मुनि में  ममता की भावना का बने रहना आश्चर्य ही है॥५॥

सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।

मुनेर्जानत आश्चर्यं ममत्वमनुवर्तते॥३- ५॥

3.6
Strange that one abiding in the Absolute, intent on freedom,
should be vulnerable to lust
and weakened by amorous pastimes.

एक ब्रह्म का आश्रय लेने वाले और मोक्ष के अर्थ का ज्ञान रखने वाले का आमोद-प्रमोद द्वारा उत्पन्न कामनाओं से विचलित होना आश्चर्य ही है॥६॥

आस्थितः परमाद्वैतं मोक्षार्थेऽपि व्यवस्थितः।

आश्चर्यं कामवशगो विकलः केलिशिक्षया॥३- ६॥

3.7

Strange that knowing lust
as an enemy of knowledge,
one so weak and nearing death should still crave sensual pleasure.

अंत समय के निकट पहुँच चुके व्यक्ति का उत्पन्न ज्ञान के अमित्र काम की इच्छा रखना, जिसको धारण करने में वह अत्यंत अशक्त है, आश्चर्य ही है॥७॥

उद्भूतं ज्ञानदुर्मित्रम- वधार्यातिदुर्बलः।

आश्चर्यं काममाकाङ्क्षेत् कालमन्तमनुश्रितः॥३- ७॥

3.8
Strange that one who is unattached
to the things of this world and the next,
who can discriminate between the transient and the timeless, who yearns for freedom,
should yet fear the dissolution of the body.

इस लोक और परलोक से विरक्त, नित्य और अनित्य का ज्ञान रखने वाले और मोक्ष की कामना रखने वालों का मोक्ष से डरना, आश्चर्य ही है॥८॥

इहामुत्र विरक्तस्य नित्यानित्यविवेकिनः।

आश्चर्यं मोक्षकामस्य मोक्षाद् एव विभीषिका॥३- ८॥

3.9
Whether acclaimed or tormented the serene sage abides in the Self. He is neither gratified nor angered.


सदा केवल आत्मा का दर्शन करने वाले बुद्धिमान व्यक्ति भोजन कराने पर या पीड़ित करने पर न प्रसन्न होते हैं और न क्रोध ही करते हैं॥९॥


धीरस्तु भोज्यमानोऽपि पीड्यमानोऽपि सर्वदा।

आत्मानं केवलं पश्यन् न तुष्यति न कुप्यति॥३- ९॥

3.10
A great soul
witnesses his body’s actions
as if they were another’s.
How can praise or blame disturb him?

अपने कार्यशील शरीर को दूसरों के शरीरों की तरह देखने वाले महापुरुषों को प्रशंसा या निंदा कैसे विचलित कर सकती है॥१०॥

चेष्टमानं शरीरं स्वं पश्यत्यन्यशरीरवत्।

संस्तवे चापि निन्दायां कथं क्षुभ्येत् महाशयः॥३- १०॥

3.11
Realizing the universe is illusion, having lost all curiosity,
how can one of steady mind fear death?

समस्त जिज्ञासाओं से रहित, इस विश्व को माया में कल्पित देखने वाले, स्थिर प्रज्ञा वाले व्यक्ति को आसन्न मृत्यु भी कैसे भयभीत कर सकती है॥११॥

मायामात्रमिदं विश्वं पश्यन् विगतकौतुकः।

अपि सन्निहिते मृत्यौ कथं त्रस्यति धीरधीः॥३- ११॥

3.12
With whom can we compare
the great soul
who, content knowing Self,
remains desireless in disappointment?

निराशा में भी समस्त इच्छाओं से रहित, स्वयं के ज्ञान से प्रसन्न महात्मा की तुलना किससे की जा सकती है॥१२॥

निःस्पृहं मानसं यस्य नैराश्येऽपि महात्मनः।

तस्यात्मज्ञानतृप्तस्य तुलना केन जायते॥३- १२॥

3.13
Why should a person of steady mind, who sees the nothingness of objects, prefer one thing to another?

स्वभाव से ही विश्व को दृश्यमान जानो, इसका कुछ भी अस्तित्व नहीं है। यह ग्रहण करने योग्य है और यह त्यागने योग्य, देखने वाला स्थिर प्रज्ञायुक्त व्यक्ति क्या देखता है?॥१३॥

स्वभावाद् एव जानानो दृश्यमेतन्न किंचन।

इदं ग्राह्यमिदं त्याज्यं स किं पश्यति धीरधीः॥३- १३॥

3.14
He who is unattached,
untouched by opposites,
free of desire,
experiences neither pleasure nor pain as events pass through.

विषयों की आतंरिक आसक्ति का त्याग करने वाले, संदेह से परे, बिना किसी इच्छा वाले व्यक्ति को स्वतः आने वाले भोग न दुखी कर सकते है और न सुखी॥१४॥

अंतस्त्यक्तकषायस्य निर्द्वन्द्वस्य निराशिषः।

यदृच्छयागतो भोगो न दुःखाय न तुष्टये॥३- १४॥

4: Glorification of Self-Realization

Janaka said:

4.1
Surely one who knows Self, though he plays the game of life, differs greatly from the world’s bewildered burdened beasts.

अष्टावक्र कहते हैं – स्वयं को जानने वाला बुद्धिमान व्यक्ति इस संसार की परिस्थितियों को खेल की तरह लेता है, उसकी सांसारिक परिस्थितियों का बोझ (दबाव) लेने वाले मोहित व्यक्ति के साथ बिलकुल भी समानता नहीं है॥१॥

अष्टावक्र उवाच – हन्तात्मज्ञस्य धीरस्य खेलतो भोगलीलया।

न हि संसारवाहीकै- र्मूढैः सह समानता॥४- १॥

4.2
Truly the yogi feels no elation, though he abides in the exalted state yearned for by Indra and all the discontented gods.

जिस पद की इन्द्र आदि सभी देवता इच्छा रखते हैं, उस पद में स्थित होकर भी योगी हर्ष नहीं करता है॥२॥

यत् पदं प्रेप्सवो दीनाः शक्राद्याः सर्वदेवताः।

अहो तत्र स्थितो योगी न हर्षमुपगच्छति॥४- २॥

4.3
Surely one who knows That
is not touched by virtue or vice,
just as space is not touched by smoke, though it seems to be.

उस (ब्रह्म) को जानने वाले के अन्तःकरण से पुण्य और पाप का स्पर्श नहीं होता है जिस प्रकार आकाश में दिखने वाले धुएँ से आकाश का संयोग नहीं होता है॥३॥

तज्ज्ञस्य पुण्यपापाभ्यां स्पर्शो ह्यन्तर्न जायते।

न ह्याकाशस्य धूमेन दृश्यमानापि सङ्गतिः॥४- ३॥

4.4
Who can prevent the great soul, who knows the universe as Self, from living life as it comes?

जिस महापुरुष ने स्वयं को ही इस समस्त जगत के रूप में जान लिया है, उसके स्वेच्छा से वर्तमान में रहने को रोकने की सामर्थ्य किसमें है॥४॥

आत्मैवेदं जगत्सर्वं ज्ञातं येन महात्मना।

यदृच्छया वर्तमानं तं निषेद्धुं क्षमेत कः॥४- ४॥

4.5
Of the four kinds of beings, from Brahma to a blade of grass, only the sage can renounce aversion and desire.

ब्रह्मा से तृण तक, चारों प्रकार के प्राणियों में केवल आत्मज्ञानी ही इच्छा और अनिच्छा का परित्याग करने में समर्थ है॥५॥

आब्रह्मस्तंबपर्यन्ते भूतग्रामे चतुर्विधे।

विज्ञस्यैव हि सामर्थ्य- मिच्छानिच्छाविवर्जने॥४- ५॥

4.6
Rare is he who knows himself as One with no other—
the Lord of the Universe.
He acts as he knows
and is never afraid.

आत्मा को एक और जगत का ईश्वर कोई कोई ही जानता है, जो ऐसा जान जाता है उसको किसी से भी किसी प्रकार का भय नहीं है॥६॥

आत्मानमद्वयं कश्चिज्- जानाति जगदीश्वरं।

यद् वेत्ति तत्स कुरुते न भयं तस्य कुत्रचित्॥४- ६॥

5: Four Ways to Dissolution

Ashtavakra said:

5.1
You are immaculate,
touched by nothing.
What is there to renounce?
The mind is complex—let it go. Know the peace of dissolution.

अष्टावक्र कहते हैं – तुम्हारा किसी से भी संयोग नहीं है, तुम शुद्ध हो, तुम क्या त्यागना चाहते हो, इस (अवास्तविक) सम्मिलन को समाप्त कर के ब्रह्म से योग (एकरूपता) को प्राप्त करो॥१॥

अष्टावक्र उवाच – न ते संगोऽस्ति केनापि किं शुद्धस्त्यक्तुमिच्छसि।

संघातविलयं कुर्वन्- नेवमेव लयं व्रज॥५- १॥

5.2
The universe arises from you like foam from the sea.
Know yourself as One.
Enter the peace of dissolution.


जिस प्रकार समुद्र से बुलबुले उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार विश्व एक आत्मा से ही उत्पन्न होता है। यह जानकर ब्रह्म से योग (एकरूपता) को प्राप्त करो॥२॥

उदेति भवतो विश्वं वारिधेरिव बुद्बुदः।

इति ज्ञात्वैकमात्मानं एवमेव लयं व्रज॥५- २॥

5.3
Like an imagined snake in a rope
the universe appears to exist
in the immaculate Self
but does not.
Seeing this you know: “There is nothing to dissolve.”

यद्यपि यह विश्व आँखों से दिखाई देता है परन्तु अवास्तविक है। विशुद्ध तुम में इस विश्व का अस्तित्व उसी प्रकार नहीं है जिस प्रकार कल्पित सर्प का रस्सी में। यह जानकर ब्रह्म से योग (एकरूपता) को प्राप्त करो ॥३॥

प्रत्यक्षमप्यवस्तुत्वाद् विश्वं नास्त्यमले त्वयि।

रज्जुसर्प इव व्यक्तं एवमेव लयं व्रज॥५- ३॥

5.4
You are perfect, changeless, through misery and happiness, hope and despair,
life and death.
This is the state of dissolution.

स्वयं को सुख और दुःख में समान, पूर्ण, आशा और निराशा में समान, जीवन और मृत्यु में समान, सत्य जानकर ब्रह्म से योग (एकरूपता) को प्राप्त करो ॥४॥

समदुःखसुखः पूर्ण आशानैराश्ययोः समः।

समजीवितमृत्युः सन्- नेवमेव लयं व्रज॥५- ४॥

6: The Higher Knowledge

Janaka said:

6.1
I am infinite space;
the universe is a jar.
This I know.
No need to renounce, accept or destroy.

अष्टावक्र कहते हैं – आकाश के समान मैं अनंत हूँ और यह जगत घड़े के समान महत्त्वहीन है, यह ज्ञान है। इसका न त्याग करना है और न ग्रहण, बस इसके साथ एकरूप होना है॥१॥

अष्टावक्र उवाच – आकाशवदनन्तोऽहं घटवत् प्राकृतं जगत्।

इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लयः॥६- १॥

6.2
I am a shoreless ocean;
the universe makes waves.
This I know.
No need to renounce, accept or destroy.


मैं महासागर के समान हूँ और यह दृश्यमान संसार लहरों के समान। यह ज्ञान है, इसका न त्याग करना है और न ग्रहण बस इसके साथ एकरूप होना है॥२॥

महोदधिरिवाहं स प्रपंचो वीचिसऽन्निभः।

इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लयः॥६- २॥

6.3
I am mother-of–pearl;
the universe is the illusion of silver. This I know.
No need to renounce, accept or destroy.


यह विश्व मुझमें वैसे ही कल्पित है जैसे कि सीप में चाँदी। यह ज्ञान है, इसका न त्याग करना है और न ग्रहण बस इसके साथ एकरूप होना है॥३॥

अहं स शुक्तिसङ्काशो रूप्यवद् विश्वकल्पना।

इति ज्ञानं तथैतस्य न त्यागो न ग्रहो लयः॥६- ३॥

6.4
I am in all beings;
all beings are in me.
This I know.
No need to renounce, accept or destroy.

मैं समस्त प्राणियों में हूँ जैसे सभी प्राणी मुझमें हैं। यह ज्ञान है, इसका न त्याग करना है और न ग्रहण बस इसके साथ एकरूप होना है॥४॥

7: Nature of Self-Realization

Janaka said:

7.1
In me, the shoreless ocean, the ark of universe
drifts here and there
on the winds of its nature. I am not impatient.

राजा जनक कहते हैं – मुझ अनंत महासागर में विश्व रूपी जहाज अपनी अन्तः वायु से इधर – उधर घूमता है पर इससे मुझमें विक्षोभ नहीं होता है॥१॥

जनक उवाच – मय्यनंतमहांभोधौ विश्वपोत इतस्ततः।

भ्रमति स्वांतवातेन न ममास्त्यसहिष्णुता॥७- १॥

7.2
In me, the shoreless ocean,
let the waves of the universe
rise and fall as they will.
I am neither enhanced nor diminished.

मुझ अनंत महासागर में विश्व रूपी लहरें माया से स्वयं ही उदित और अस्त होती रहती हैं, इससे मुझमें वृद्धि या क्षति नहीं होती है॥२॥

मय्यनंतमहांभोधौ जगद्वीचिः स्वभावतः।

उदेतु वास्तमायातु न मे वृद्धिर्न च क्षतिः॥७- २॥

7.3
In me, the shoreless ocean, the universe is imagined.
I am still and formless.
In this alone I abide.

मुझ अनंत महासागर में विश्व एक अवास्तविकता (स्वप्न) है, मैं अति शांत और निराकार रूप से स्थित हूँ॥३॥

मय्यनंतमहांभोधौ विश्वं नाम विकल्पना।

अतिशांतो निराकार एतदेवाहमास्थितः॥७- ३॥

7.4
The Self is not in objects,
nor are objects in the pure and infinite Self. The Self is tranquil,
free of attachment and desire.
In this alone I abide.

उस अनंत और निरंजन अवस्था में न ‘मैं’ का भाव है और न कोई अन्य भाव ही, इस प्रकार असक्त, बिना किसी इच्छा के और शांत रूप से मैं स्थित हूँ॥४॥

नात्मा भावेषु नो भावस्- तत्रानन्ते निरंजने।

इत्यसक्तोऽस्पृहः शान्त एतदेवाहमास्थितः॥७- ४॥

7.5
I am Awareness alone.
The world is passing show. How can thoughts arise
of acceptance or rejection? And where?

आश्चर्य मैं शुद्ध चैतन्य हूँ और यह जगत असत्य जादू के समान है, इस प्रकार मुझमें कहाँ और कैसे अच्छे (उपयोगी) और बुरे (अनुपयोगी) की कल्पना॥५॥

अहो चिन्मात्रमेवाहं इन्द्रजालोपमं जगत्।

अतो मम कथं कुत्र हेयोपादेयकल्पना॥७- ५॥

8: Bondage and Liberation

Ashtavakra said:

8.1
When the mind desires or grieves things, accepts or rejects things,
is pleased or displeased by things–
this is bondage.

श्री अष्टावक्र कहते हैं – तब बंधन है जब मन इच्छा करता है, शोक करता है, कुछ त्याग करता है, कुछ ग्रहण करता है, कभी प्रसन्न होता है या कभी क्रोधित होता है॥१॥

अष्टावक्र उवाच – तदा बन्धो यदा चित्तं किन्चिद् वांछति शोचति।

किंचिन् मुंचति गृण्हाति किंचिद् हृष्यति कुप्यति॥८-१॥

8.2
When the mind does not desire or grieve,
accept or reject,
become pleased or displeased, liberation is at hand.

तब मुक्ति है जब मन इच्छा नहीं करता है, शोक नहीं करता है, त्याग नहीं करता है, ग्रहण नहीं करता है, प्रसन्न नहीं होता है या क्रोधित नहीं होता है॥२॥

तदा मुक्तिर्यदा चित्तं न वांछति न शोचति।

न मुंचति न गृण्हाति न हृष्यति न कुप्यति॥८- २॥

8.3
If the mind is attached to any experience,
this is bondage.
When the mind is detached from all experience, this is liberation.

तब बंधन है जब मन किसी भी दृश्यमान वस्तु में आसक्त है, तब मुक्ति है जब मन किसी भी दृश्यमान वस्तु में आसक्तिरहित है ॥३॥

तदा बन्धो यदा चित्तं सक्तं काश्वपि दृष्टिषु।

तदा मोक्षो यदा चित्तम- सक्तं सर्वदृष्टिषु॥८- ३॥

8.4
When there is no “I”
there is only liberation. When “I” appears
bondage appears with it. Knowing this,
it is effortless to refrain
from accepting and rejecting.

जब तक ‘मैं’ या ‘मेरा’ का भाव है तब तक बंधन है, जब ‘मैं’ या ‘मेरा’ का भाव नहीं है तब मुक्ति है।
यह जानकर न कुछ त्याग करो और न कुछ ग्रहण ही करो ॥४॥

यदा नाहं तदा मोक्षो यदाहं बन्धनं तदा।

मत्वेति हेलया किंचिन्- मा गृहाण विमुंच मा॥८- ४॥

9: Detachment

Ashtavakra said:

9.1
Opposing forces,
duties done and left undone—
when does it end
and for whom?
Considering this, be ever desireless,
let go of all things,
and to the world turn an indifferent eye.

श्री अष्टावक्र कहते हैं – यह कार्य करने योग्य है अथवा न करने योग्य और ऐसे ही अन्य द्वंद्व (हाँ या न रूपी संशय) कब और किसके शांत हुए हैं। ऐसा विचार करके विरक्त (उदासीन) हो जाओ, त्यागवान बनो, ऐसे किसी नियम का पालन न करने वाले बनो॥१॥

अष्टावक्र उवाच – कृताकृते च द्वन्द्वानि कदा शान्तानि कस्य वा।

एवं ज्ञात्वेह निर्वेदाद् भव त्यागपरोऽव्रती॥९- १॥

9.2
Rare and blessed is one
whose desire to live,
to enjoy and to know,
has been extinguished by observing the ways of men.

हे पुत्र! इस संसार की (व्यर्थ) चेष्टा को देख कर किसी धन्य पुरुष की ही जीने की इच्छा, भोगों के उपभोग की इच्छा और भोजन की इच्छा शांत हो पाती है॥२॥

कस्यापि तात धन्यस्य लोकचेष्टावलोकनात्।

जीवितेच्छा बुभुक्षा च बुभुत्सोपशमं गताः॥९- २॥

9.3
Seeing all things as threefold suffering, the sage becomes still.
Insubstantial, transient, contemptible– the world is fit only for rejection.

यह सब अनित्य है, तीन प्रकार के कष्टों (दैहिक, दैविक और भौतिक) से घिरा है, सारहीन है, निंदनीय है, त्याग करने योग्य है, ऐसा निश्चित करके ही शांति प्राप्त होती है॥३॥

अनित्यं सर्वमेवेदं तापत्रयदूषितं।

असारं निन्दितं हेयमि- ति निश्चित्य शाम्यति॥९- ३॥

9.4
Was there an age or time
men existed without opposites? Leave the opposites behind.
Be content with what comes. Perfection.

ऐसा कौन सा समय अथवा उम्र है जब मनुष्य के संशय नहीं रहे हैं, अतः संशयों की उपेक्षा करके अनायास सिद्धि को प्राप्त करो॥४॥

कोऽसौ कालो वयः किं वा यत्र द्वन्द्वानि नो नृणां।

तान्युपेक्ष्य यथाप्राप्तवर्ती सिद्धिमवाप्नुयात्॥९- ४॥

9.5
The greatest seers, saints and yogis
agree on very little.
Seeing this,
who could not be indifferent to knowledge and become still?

महर्षियों, साधुओं और योगियों के विभिन्न मतों को देखकर कौन मनुष्य वैराग्यवान होकर शांत नहीं हो जायेगा॥५॥

नाना मतं महर्षीणां साधूनां योगिनां तथा।

दृष्ट्वा निर्वेदमापन्नः को न शाम्यति मानवः॥९- ५॥

9.6
One who
through worldly indifference,
through serenity and reason,
sees his true nature and escapes illusion— is he not a true teacher?

चैतन्य का साक्षात् ज्ञान प्राप्त करके कौन वैराग्य और समता से युक्त कौन गुरु जन्म और मृत्यु के बंधन से तार नहीं देगा॥६॥

कृत्वा मूर्तिपरिज्ञानं चैतन्यस्य न किं गुरुः।

निर्वेदसमतायुक्त्या यस्तारयति संसृतेः॥९- ६॥

9.7
In the myriad forms of the universe see the primal element alone.
You will be instantly free,
and abide in Self.

तत्त्वों के विकार को वास्तव में उनकी मात्रा के परिवर्तन के रूप में देखो, ऐसा देखते ही उसी क्षण तुम बंधन से मुक्त होकर अपने स्वरुप में स्थित हो जाओगे॥७॥

पश्य भूतविकारांस्त्वं भूतमात्रान् यथार्थतः।

तत्क्षणाद् बन्धनिर्मुक्तः स्वरूपस्थो भविष्यसि॥९- ७॥

9.8
Desire creates the world–renounce it. Renounce desires
and you renounce the world.
Now you may live as you are.

इच्छा ही संसार है, ऐसा जानकर सबका त्याग कर दो, उस त्याग से इच्छाओं का त्याग हो जायेगा और तुम्हारी यथारूप अपने स्वरुप में स्थिति हो जाएगी॥८॥

वासना एव संसार इति सर्वा विमुंच ताः।

तत्त्यागो वासनात्यागा- त्स्थितिरद्य यथा तथा॥९- ८॥

10: Quietude

Ashtavakra said:

10.1
Give up desire,
which is the enemy.
Give up prosperity,
which is born of mischief and good works. Be indifferent.

श्री अष्टावक्र कहते हैं – कामना और अनर्थों के समूह धन रूपी शत्रुओं को त्याग दो, इन दोनों के त्याग रूपी धर्म से युक्त होकर सर्वत्र विरक्त (उदासीन) हो जाओ॥१॥

अष्टावक्र उवाच – विहाय वैरिणं कामम- र्थं चानर्थसंकुलं।

धर्ममप्येतयोर्हेतुं सर्वत्रानादरं कुरु॥१०- १॥

10.2
Look upon
friends, lands, wealth, houses, wives, gifts– and all apparent good fortune–
as a passing show,
as a dream lasting three to five days.

मित्र, जमीन, कोषागार, पत्नी और अन्य संपत्तियों को स्वप्न की माया के समान तीन या पाँच दिनों में नष्ट होने वाला देखो॥२॥

स्वप्नेन्द्रजालवत् पश्य दिनानि त्रीणि पंच वा।

मित्रक्षेत्रधनागार- दारदायादिसंपदः॥१०- २॥

10.3
Where there is desire, there is the world. Be firm in non-attachment.
Be free of desire.
Be happy.

जहाँ जहाँ आसक्ति हो उसको ही संसार जानो, इस प्रकार परिपक्व वैराग्य के आश्रय में तृष्णारहित होकर सुखी हो जाओ॥३॥

यत्र यत्र भवेत्तृष्णा संसारं विद्धि तत्र वै।

प्रौढवैराग्यमाश्रित्य वीततृष्णः सुखी भव॥१०- ३॥

10.4
Bondage and desire are the same. Destroy desire and be free.
Only by detaching from the world does one joyfully realize Self.

तृष्णा (कामना) मात्र ही स्वयं का बंधन है, उसके नाश को मोक्ष कहा जाता है।
संसार में अनासक्ति से ही निरंतर आनंद की प्राप्ति होती है॥४॥

तृष्णामात्रात्मको बन्धस्- तन्नाशो मोक्ष उच्यते।

भवासंसक्तिमात्रेण प्राप्तितुष्टिर्मुहुर्मुहुः॥१०- ४॥

10.5
You are One—
Awareness itself.
The universe is neither aware nor does it exist.
Even ignorance is unreal. What is left to know?

तुम एक(अद्वितीय), चेतन और शुद्ध हो तथा यह विश्व अचेतन और असत्य है।
तुममें अज्ञान का लेश मात्र भी नहीं है और जानने की इच्छा भी नहीं है॥५॥

10.6
Attached as you have been to
kingdoms, sons, wives, bodies, pleasures— life after life—
still they are now lost forever.

पूर्व जन्मों में बहुत बार तुम्हारे राज्य, पुत्र, स्त्री, शरीर और सुखों का, तुम्हारी आसक्ति होने पर भी नाश हो चुका है॥६॥

10.7
Prosperity, pleasure, pious deeds… Enough!
In the dreary forest of the world the mind finds no rest.

पर्याप्त धन, इच्छाओं और शुभ कर्मों द्वारा भी इस संसार रूपी माया से मन को शांति नहीं मिली॥७॥

अलमर्थेन कामेन सुकृतेनापि कर्मणा।

एभ्यः संसारकान्तारे न विश्रान्तमभून् मनः॥१०- ७॥

10.8
For how many lifetimes
have you done hard and painful labor with body, mind and speech?
It is time to stop.

कितने जन्मों में शरीर, मन और वाणी से दुःख के कारण कर्मों को तुमने नहीं किया? अब उनसे उपरत (विरक्त) हो जाओ॥८॥

11: Wisdom

Ashtavakra said:

11.1
Existence, non-existence, change– this is the nature of things. Realizing this,
stillness, serenity and bliss naturally follow.

श्री अष्टावक्र कहते हैं – भाव(सृष्टि, स्थिति) और अभाव(प्रलय, मृत्यु) रूपी विकार स्वाभाविक हैं, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला विकाररहित, दुखरहित होकर सुख पूर्वक शांति को प्राप्त हो जाता है॥१॥

अष्टावक्र उवाच – भावाभावविकारश्च स्वभावादिति निश्चयी।

निर्विकारो गतक्लेशः सुखेनैवोपशाम्यति॥११- १॥

11.2
One who knows for certain that “Self creates All and is alone” becomes still, desireless, and unattached.

ईश्वर सबका सृष्टा है कोई अन्य नहीं ऐसा निश्चित रूप से जानने वाले की सभी आन्तरिक इच्छाओं का नाश हो जाता है।
वह शांत पुरुष सर्वत्र आसक्ति रहित हो जाता है॥२॥

ईश्वरः सर्वनिर्माता नेहान्य इति निश्चयी।

अन्तर्गलितसर्वाशः शान्तः क्वापि न सज्जते॥११- २॥

11.3
One who knows for certain
that adversity and success
come and go in obedience to destiny becomes content.
He neither desires nor grieves.

संपत्ति (सुख) और विपत्ति (दुःख) का समय प्रारब्धवश (पूर्व कृत कर्मों के अनुसार) है, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला संतोष और निरंतर संयमित इन्द्रियों से युक्त हो जाता है। वह न इच्छा करता है और न शोक॥३॥

आपदः संपदः काले दैवादेवेति निश्चयी।

तृप्तः स्वस्थेन्द्रियो नित्यं न वान्छति न शोचति॥११- ३॥

11.4
One who knows for certain
that birth and death, happiness and misery, come and go in obedience to destiny
sees nothing to accomplish.
He engages in non-action,
and in action remains unattached.

सुख-दुःख और जन्म-मृत्यु प्रारब्धवश (पूर्व कृत कर्मों के अनुसार) हैं, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला, फल की इच्छा न रखने वाला, सरलता से कर्म करते हुए भी उनसे लिप्त नहीं होता है॥४॥

सुखदुःखे जन्ममृत्यू दैवादेवेति निश्चयी।

साध्यादर्शी निरायासः कुर्वन्नपि न लिप्यते॥११- ४॥

11.5
One who has realized
that only by caring
is misery caused in the world
becomes free, happy, serene, desireless.

चिंता से ही दुःख उत्पन्न होते हैं किसी अन्य कारण से नहीं, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला, चिंता से रहित होकर सुखी, शांत और सभी इच्छाओं से मुक्त हो जाता है॥५॥

चिन्तया जायते दुःखं नान्यथेहेति निश्चयी।

तया हीनः सुखी शान्तः सर्वत्र गलितस्पृहः॥११- ५॥

11.6
“I am not the body, nor is the body my possession— I am Awareness itself.”
One who realizes this for certain
has no memory of things done or left undone.
There is only the Absolute.

न मैं यह शरीर हूँ और न यह शरीर मेरा है, मैं ज्ञानस्वरुप हूँ, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला जीवन मुक्ति को प्राप्त करता है। वह किये हुए (भूतकाल) और न किये हुए (भविष्य के) कर्मों का स्मरण नहीं करता है॥६॥

नाहं देहो न मे देहो बोधोऽहमिति निश्चयी।

कैवल्यं इव संप्राप्तो न स्मरत्यकृतं कृतम्॥११- ६॥

11.7
“From Brahma to the last blade of grass–
I alone exist.”
One who knows this for certain
becomes immaculate, serene, unconflicted. Attainment has no meaning.

तृण से लेकर ब्रह्मा तक सब कुछ मैं ही हूँ, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला विकल्प (कामना) रहित, पवित्र, शांत और प्राप्त-अप्राप्त से आसक्ति रहित हो जाता है॥७॥

आब्रह्मस्तंबपर्यन्तं अहमेवेति निश्चयी।

निर्विकल्पः शुचिः शान्तः प्राप्ताप्राप्तविनिर्वृतः॥११- ७॥

11.8
One who knows for certain
that this manifold and wonderful universe is nothing
becomes desireless Awareness
and abides in the stillness of No-thing.

अनेक आश्चर्यों से युक्त यह विश्व अस्तित्वहीन है, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला, इच्छा रहित और शुद्ध अस्तित्व हो जाता है। वह अपार शांति को प्राप्त करता है॥८॥

नाश्चर्यमिदं विश्वं न किंचिदिति निश्चयी।

निर्वासनः स्फूर्तिमात्रो न किंचिदिव शाम्यति॥११- ८॥

12: Abiding in the Self

Janaka said:

12.1
Becoming first intolerant of action, then of excessive speech,
then of thought itself,
I come to be here.

श्री जनक कहते हैं – पहले मैं शारीरिक कर्मों से निरपेक्ष (उदासीन) हुआ, फिर वाणी से निरपेक्ष (उदासीन) हुआ। अब चिंता से निरपेक्ष (उदासीन) होकर अपने स्वरुप में स्थित हूँ॥१॥

जनक उवाच – कायकृत्यासहः पूर्वं ततो वाग्विस्तरासहः।

अथ चिन्तासहस्तस्माद् एवमेवाहमास्थितः॥१२- १॥

12.2
Neither sounds nor other sense perceptions attract my attention.
Even the Self is unperceived.
The mind is free, undistracted, one-pointed. And here I am.

शब्द आदि विषयों में आसक्ति रहित होकर और आत्मा के दृष्टि का विषय न होने के कारण मैं निश्चल और एकाग्र ह्रदय से अपने स्वरुप में स्थित हूँ॥२॥

प्रीत्यभावेन शब्दादेर- दृश्यत्वेन चात्मनः।

विक्षेपैकाग्रहृदय एवमेवाहमास्थितः॥१२- २॥

12.3
Effort is required
to concentrate a distracted mind superimposed with illusion. Knowing this, I remain here.

अध्यास (असत्य ज्ञान) आदि असामान्य स्थितियों और समाधि को एक नियम के समान देखते हुए मैं अपने स्वरुप में स्थित हूँ॥३॥

12.4
Nothing to reject, nothing to accept. No joy, no sorrow. Lord God I am here.

हे ब्रह्म को जानने वाले! त्याज्य (छोड़ने योग्य) और संग्रहणीय से दूर होकर और सुख-दुःख के अभाव में मैं अपने स्वरुप में स्थित हूँ॥४॥

अभावादद्य हे ब्रह्मन्न् एवमेवाहमास्थितः॥१२- ४॥

12.5
The four stages of life,
life without stages,
meditation, renunciation, objects of mind— nothing but distractions.
I am forever here.

आश्रम – अनाश्रम, ध्यान और मन द्वारा स्वीकृत और निषिद्ध नियमों को देख कर मैं अपने स्वरुप में स्थित हूँ॥५॥

आश्रमानाश्रमं ध्यानं चित्तस्वीकृतवर्जनं।

विकल्पं मम वीक्ष्यै- तैरेवमेवाहमास्थितः॥१२- ५॥

12.6
Doing and not-doing
both arise from ignorance. I know this.
And I am here.

कर्मों के अनुष्ठान रूपी अज्ञान से निवृत्त होकर और तत्त्व को सम्यक रूप से जान कर मैं अपने स्वरुप में स्थित हूँ॥६॥

कर्मानुष्ठानमज्ञानाद् यथैवोपरमस्तथा।

बुध्वा सम्यगिदं तत्त्वं एवमेवाहमास्थितः॥१२- ६॥

12.7
Thinking of the unthinkable One unavoidably conjures thought.
I choose no-thought
and remain here.

अचिन्त्य के सम्बन्ध में विचार करते हुए भी विचार पर ही चिंतन किया जाता है।
अतः उस विचार का भी परित्याग करके मैं अपने स्वरुप में स्थित हूँ॥७॥’

अचिंत्यं चिंत्यमानोऽपि चिन्तारूपं भजत्यसौ।

त्यक्त्वा तद्भावनं तस्माद् एवमेवाहमास्थितः॥१२- ७॥

12.8
Blessed is he
who attains this by effort. Blessed is he
who is such by nature.

जो इस प्रकार से आचरण करता है वह कृतार्थ (मुक्त) हो जाता है; जिसका इस प्रकार का स्वभाव है वह कृतार्थ (मुक्त) हो जाता है॥८॥

13: Happiness

Janaka said:

13.1
The tranquil state
of knowing Self alone is rare—
even among those who own but a loincloth. I therefore neither renounce nor accept
and am happy.

श्री जनक कहते हैं – अकिंचन(कुछ अपना न) होने की सहजता केवल कौपीन पहनने पर भी मुश्किल से प्राप्त होती है, अतः त्याग और संग्रह की प्रवृत्तियों को छोड़कर सभी स्थितियों में, मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ॥१॥

जनक उवाच- अकिंचनभवं स्वास्थ्यं कौपीनत्वेऽपि दुर्लभं।

त्यागादाने विहायास्माद- हमासे यथासुखम्॥१३- १॥

13.2
The body is strained by practices. The tongue tires of scripture.
The mind numbs with meditation. Detached from all this,
I live as I am.

शारीरिक दुःख भी कहाँ(अर्थात् नहीं) हैं, वाणी के दुःख भी कहाँ हैं, वहाँ मन भी कहाँ है, सभी प्रयत्नों को त्याग कर सभी स्थितियों में, मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ॥२॥

कुत्रापि खेदः कायस्य जिह्वा कुत्रापि खेद्यते।

मनः कुत्रापि तत्त्यक्त्वा पुरुषार्थे स्थितः सुखम्॥१३- २॥

13.3
Realizing that nothing is done, I do what comes
and am happy.

किये हुए किसी भी कार्य का वस्तुतः कोई अस्तित्व नहीं है, ऐसा तत्त्वपूर्वक विचार करके जब जो भी कर्त्तव्य है उसको करते हुए सभी स्थितियों में, मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ॥३॥

कृतं किमपि नैव स्याद् इति संचिन्त्य तत्त्वतः।

यदा यत्कर्तुमायाति तत् कृत्वासे यथासुखम्॥१३- ३॥

13.4
Yogis who preach
either effort or non-effort
are still attached to the body.
I neither dissociate nor associate with any of that
and am happy.

शरीर भाव में स्थित योगियों के लिए कर्म और अकर्म रूपी बंधनकारी भाव होते हैं, पर संयोग और वियोग की प्रवृत्तियों को छोड़कर सभी स्थितियों में, मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ॥४॥

कर्मनैष्कर्म्यनिर्बन्ध- भावा देहस्थयोगिनः।

संयोगायोगविरहादह- मासे यथासुखम्॥१३- ४॥

13.5
I have nothing to gain or lose
by standing, walking or sitting down. So whether I stand, walk or sit
I am happy.

विश्राम, गति, शयन, बैठने, चलने और स्वप्न में वस्तुतः मेरे लाभ और हानि नहीं हैं, अतः सभी स्थितियों में, मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ॥५॥

अर्थानर्थौ न मे स्थित्या गत्या न शयनेन वा।

तिष्ठन् गच्छन् स्वपन् तस्मादहमासे यथासुखम्॥१३- ५॥

13.6
I do not lose by sleeping
nor attain by effort.
Not thinking in terms of loss or gain I am happy.

सोने में मेरी हानि नहीं है और उद्योग अथवा अनुद्योग में मेरा लाभ नहीं है अतः हर्ष और शोक की प्रवृत्तियों को छोड़कर सभी स्थितियों में, मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ॥६॥

स्वपतो नास्ति मे हानिः सिद्धिर्यत्नवतो न वा।

नाशोल्लासौ विहायास्- मदहमासे यथासुखम्॥१३- ६॥

13.7
Pleasure and pain fluctuate and are inconsistent. Without good or bad
I live happily.

सुख, दुःख आदि स्थितियों के क्रम से आने के नियम पर बार बार विचार करके, शुभ(अच्छे) और अशुभ(बुरे) की प्रवृत्तियों को छोड़कर सभी स्थितियों में, मैं सुखपूर्वक विद्यमान हूँ॥७॥

सुखादिरूपा नियमं भावेष्वालोक्य भूरिशः।

शुभाशुभे विहायास्मादह- मासे यथासुखम्॥१३- ७॥

14: Tranquility

Janaka said:

14.1
Though appearing asleep like other men, one whose interest in the world is exhausted, whose mind has been emptied,
who thinks only by inadvertence,
is in Reality awake.

श्रीजनक कहते हैं – जो स्वभाव से ही विचारशून्य है और शायद ही कभी कोई इच्छा करता है वह पूर्व स्मृतियों से उसी प्रकार मुक्त हो जाता है जैसे कि नींद से जागा हुआ व्यक्ति अपने सपनों से॥१॥

जनक उवाच – प्रकृत्या शून्यचित्तो यः प्रमादाद् भावभावनः।

निद्रितो बोधित इव क्षीण- संस्मरणो हि सः॥१४- १॥

14.2
When desire has melted,
how can there be wealth,
or friends, or the seduction of senses? What use is scripture and knowledge?

जब मैं कोई इच्छा नहीं करता तब मुझे धन, मित्रों, विषयों, शास्त्रों और विज्ञान से क्या प्रयोजन है॥२॥

क्व धनानि क्व मित्राणि क्व मे विषयदस्यवः।

क्व शास्त्रं क्व च विज्ञानं यदा मे गलिता स्पृहा॥१४- २॥

14.3
I have realized the Supreme Self, the Witness, the One.
I am indifferent
to bondage and freedom.
I have no need for liberation.

साक्षी पुरुष रूपी परमात्मा या ईश्वर को जानकर मैं बंधन और मोक्ष से निरपेक्ष हो गया हूँ और मुझे मोक्ष की चिंता भी नहीं है॥३॥

विज्ञाते साक्षिपुरुषे परमात्मनि चेश्वरे।

नैराश्ये बंधमोक्षे च न चिंता मुक्तये मम॥१४- ३॥

14.4
The inner condition
of one who is devoid of doubt
yet moves among creatures of illusion can only be known by those like him.

आतंरिक इच्छाओं से रहित, बाह्य रूप में चिंतारहित आचरण वाले, प्रायः मत्त पुरुष जैसे ही दिखने वाले प्रकाशित पुरुष अपने जैसे प्रकाशित पुरुषों द्वारा ही पहचाने जा सकते हैं॥४॥

15: Knowledge of the Self

Ashtavakra said:

15.1
A man of open intuition
may realize the Self upon
hearing a casual instruction, while a man of cluttered intellect inquires bewildered for a lifetime.

श्रीअष्टावक्र कहते हैं – सात्विक बुद्धि से युक्त मनुष्य साधारण प्रकार के उपदेश से भी कृतकृत्य(मुक्त) हो जाता है परन्तु ऐसा न होने पर आजीवन जिज्ञासु होने पर भी परब्रह्म का यथार्थ ज्ञान नहीं होता है॥१॥

अष्टावक्र उवाच – यथातथोपदेशेन कृतार्थः सत्त्वबुद्धिमान्।

आजीवमपि जिज्ञासुः परस्तत्र विमुह्यति॥१५- १॥

15.2
Aversion to the world’s offerings is liberation. Attraction to the world’s offerings
is the suffering of bondage.
This is the truth.
Now do as you please.

विषयों से उदासीन होना मोक्ष है और विषयों में रस लेना बंधन है, ऐसा जानकर तुम्हारी जैसी इच्छा हो वैसा ही करो॥२॥

मोक्षो विषयवैरस्यं बन्धो वैषयिको रसः।

एतावदेव विज्ञानं यथेच्छसि तथा कुरु॥१५- २॥

15.3
This knowledge of Truth
turns an eloquent, wise and active man mute, empty and inert.
Lovers of the world therefore shun it.

वाणी, बुद्धि और कर्मों से महान कार्य करने वाले मनुष्यों को तत्त्व-ज्ञान शांत, स्तब्ध और कर्म न करने वाला बना देता है, अतः सुख की इच्छा रखने वाले इसका त्याग कर देते हैं॥३॥

वाग्मिप्राज्ञामहोद्योगं जनं मूकजडालसं।

करोति तत्त्वबोधोऽयम- तस्त्यक्तो बुभुक्षभिः॥१५- ३॥

15.4
You are not the body.
You do not have a body.
You neither do nor enjoy.
You are Awareness only–the timeless Witness. You are free.
Go in happiness.

न तुम शरीर हो और न यह शरीर तुम्हारा है, न ही तुम भोगने वाले अथवा करने वाले हो, तुम चैतन्य रूप हो, शाश्वत साक्षी हो, इच्छा रहित हो, अतः सुखपूर्वक रहो॥४॥

न त्वं देहो न ते देहो भोक्ता कर्ता न वा भवान्।

चिद्रूपोऽसि सदा साक्षी निरपेक्षः सुखं चर॥१५- ४॥

15.5
Attachment and aversion
are attributes of the mind. You are not the mind.
You are Consciousness itself– changeless, undivided, free. Go in happiness.

राग(प्रियता) और द्वेष(अप्रियता) मन के धर्म हैं और तुम किसी भी प्रकार से मन नहीं हो, तुम कामनारहित हो, ज्ञान स्वरुप हो, विकार रहित हो, अतः सुखपूर्वक रहो॥५॥

रागद्वेषौ मनोधर्मौ न मनस्ते कदाचन।

निर्विकल्पोऽसि बोधात्मा निर्विकारः सुखं चर॥१५- ५॥

15.6
Realize Self in All and All in Self. Be free of personal identity
and the sense of “mine.”
Be happy.

समस्त प्राणियों को स्वयं में और स्वयं को सभी प्राणियों में स्थित जान कर अहंकार और आसक्ति से रहित होकर तुम सुखी हो जाओ॥६॥

सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।

विज्ञाय निरहंकारो निर्ममस्त्वं सुखी भव॥१५- ६॥

15.7
You are That in which the universe appears like waves appearing in the ocean.
You are Consciousness itself.
No need to worry.

इस विश्व की उत्पत्ति तुमसे उसी प्रकार होती है जैसे कि समुद्र से लहरों की, इसमें संदेह नहीं है। तुम चैतन्य स्वरुप हो, अतः चिंता रहित हो जाओ॥७॥

विश्वं स्फुरति यत्रेदं तरंगा इव सागरे।

तत्त्वमेव न सन्देह- श्चिन्मूर्ते विज्वरो भव॥१५- ७॥

15.8
Have faith, my son, have faith. You are Awareness alone,
the Self, the One.
You are the Lord of Nature.

हे प्रिय! इस अनुभव पर निष्ठा रखो, इस पर श्रद्धा रखो, इस अनुभव की सत्यता के सम्बन्ध में मोहित मत हो, तुम ज्ञान स्वरुप हो, तुम प्रकृति से परे और आत्म स्वरुप भगवान हो॥८॥

15.9
The body is made of worldly stuff. It comes, it lingers, it goes.
The Self neither comes nor goes, yet remains.
Why mourn the body?

गुणों से निर्मित यह शरीर स्थिति, जन्म और मरण को प्राप्त होता है, आत्मा न आती है और न ही जाती है, अतः तुम क्यों शोक करते हो॥९॥

गुणैः संवेष्टितो देह- स्तिष्ठत्यायाति याति च।

आत्मा न गंता नागंता किमेनमनुशोचसि॥१५- ९॥

15.10
If the body lasts until the end of time or perishes today—
is there gain or loss for you?
You who are Awareness?

यह शरीर सृष्टि के अंत तक रहे अथवा आज ही नाश को प्राप्त हो जाये, तुम तो चैतन्य स्वरुप हो, इससे तुम्हारी क्या हानि या लाभ है॥१०॥

देहस्तिष्ठतु कल्पान्तं गच्छत्वद्यैव वा पुनः।

क्व वृद्धिः क्व च वा हानिस्- तव चिन्मात्ररूपिणः॥१५- १०॥

15.11
Let the waves of the universe rise and fall as they will.
You have nothing to gain or lose. You are the ocean.

अनंत महासमुद्र रूप तुम में लहर रूप यह विश्व स्वभाव से ही उदय और अस्त को प्राप्त होता है, इसमें तुम्हारी क्या वृद्धि या क्षति है॥११॥

त्वय्यनंतमहांभोधौ विश्ववीचिः स्वभावतः।

उदेतु वास्तमायातु न ते वृद्धिर्न वा क्षतिः॥१५- ११॥

15.12
You are the substance of Consciousness. The world is You.
Who is it that thinks
he can accept or reject it?
And where does he stand?

हे प्रिय, तुम केवल चैतन्य रूप हो और यह विश्व तुमसे अलग नहीं है, अतः किसी की किसी से श्रेष्ठता या निम्नता की कल्पना किस प्रकार की जा सकती है॥१२॥

तात चिन्मात्ररूपोऽसि न ते भिन्नमिदं जगत्।

अतः कस्य कथं कुत्र हेयोपादेयकल्पना॥१५- १२॥

15.13
In you who are One— immaculate, still Awareness— from where can birth, action or a separate person arise?

इस अव्यय, शांत, चैतन्य, निर्मल आकाश में तुम अकेले ही हो, अतः तुममें जन्म, कर्म और अहंकार की कल्पना किस प्रकार की जा सकती है॥१३॥

कुतो जन्म कुतो कर्म कुतोऽहंकार एव च॥१५- १३॥

15.14
Whatever you perceive
is You and You alone.
How can bracelets, armlets and anklets be other than the gold they are made of?

तुम एक होते हुए भी अनेक रूप में प्रतिबिंबित होकर दिखाई देते हो। क्या स्वर्ण कंगन, बाज़ूबन्द और पायल से अलग दिखाई देता है॥१४॥

यत्त्वं पश्यसि तत्रैकस्- त्वमेव प्रतिभाससे।

किं पृथक् भासते स्वर्णात् कटकांगदनूपुरम्॥१५- १४॥

15.15
Leave behind such distinctions as “I am He, the Self,”
and “I am not this.”
Consider everything Self.
Be desireless.
Be happy.

यह मैं हूँ और यह मैं नहीं हूँ, इस प्रकार के भेद को त्याग दो। सब कुछ आत्मस्वरूप तुम ही हो, ऐसा निश्चय करके और कोई संकल्प न करते हुए सुखी हो जाओ॥१५॥

अयं सोऽहमयं नाहं विभागमिति संत्यज।

सर्वमात्मेति निश्चित्य निःसङ्कल्पः सुखी भव॥१५- १५॥

15.16
Your ignorance alone creates the universe.
In reality One alone exists. There is no person or god other than You.

अज्ञानवश तुम ही यह विश्व हो पर ज्ञान दृष्टि से देखने पर केवल एक तुम ही हो, तुमसे अलग कोई दूसरा संसारी या असंसारी किसी भी प्रकार से नहीं है॥१६॥

तवैवाज्ञानतो विश्वं त्वमेकः परमार्थतः।

त्वत्तोऽन्यो नास्ति संसारी नासंसारी च कश्चन॥१५- १६॥

15.17
One who knows for certain
that the universe is illusion,
a no-thing,
becomes desireless,
pure Awareness,
and finds peace in the existence of nothing.

यह विश्व केवल भ्रम(स्वप्न की तरह असत्य) है और कुछ भी नहीं, ऐसा निश्चय करो।
इच्छा और चेष्टा रहित हुए बिना कोई भी शांति को प्राप्त नहीं होता है॥१७॥

भ्रान्तिमात्रमिदं विश्वं न किंचिदिति निश्चयी।

निर्वासनः स्फूर्तिमात्रो न किंचिदिव शाम्यति॥१५- १७॥

15.18
In the ocean of existence
only One is, was, and ever will be. You are neither bound nor free. Live content and be happy.

एक ही भवसागर(सत्य) था, है और रहेगा। तुममें न मोक्ष है और न बंधन, आप्त-काम होकर सुख से विचरण करो॥१८॥

एक एव भवांभोधा- वासीदस्ति भविष्यति।

न ते बन्धोऽस्ति मोक्षो वा कृत्यकृत्यः सुखं चर॥१५- १८॥

15.19
Do not stir the mind
with “yes” or “no.”
You are pure Consciousness. Be still,
and abide in the bliss of Self.

हे चैतन्यरूप! भाँति-भाँति के संकल्पों और विकल्पों से अपने चित्त को अशांत मत करो, शांत होकर अपने आनंद रूप में सुख से स्थित हो जाओ॥१९॥

मा सङ्कल्पविकल्पाभ्यां चित्तं क्षोभय चिन्मय।

उपशाम्य सुखं तिष्ठ स्वात्मन्यानन्दविग्रहे॥१५- १९॥

15.20
Give up completely
all contemplation.
Hold nothing in the mind or heart. You are the Self, forever free.
Of what use is thinking to you?

सभी स्थानों से अपने ध्यान को हटा लो और अपने हृदय में कोई विचार न करो। तुम आत्मरूप हो और मुक्त ही हो, इसमें विचार करने की क्या आवश्यकता है॥२०॥

त्यजैव ध्यानं सर्वत्र मा किंचिद् हृदि धारय।

आत्मा त्वं मुक्त एवासि किं विमृश्य करिष्यसि॥१५- २०॥

16: Special Instruction

Ashtavakra said:

16.1
You can recite and discuss scripture all you want,
but until you drop everything
you will never know Truth.

श्री अष्टावक्र कहते हैं – हे प्रिय, विद्वानों से सुनकर अथवा बहुत शास्त्रों के पढ़ने से तुम्हारी आत्म स्वरुप में वैसी स्थिति नहीं होगी जैसी कि सब कुछ उचित रीति से भूल जाने से॥१॥

अष्टावक्र उवाच – आचक्ष्व शृणु वा तात नानाशास्त्राण्यनेकशः।

तथापि न तव स्वास्थ्यं सर्वविस्मरणाद् ऋते॥१६- १॥

16.2
You can enjoy and work and meditate, but you will still yearn for That
which is beyond all experience,
and in which all desires are extinguished.

कर्म भोग करो या समाधि में रहो पर चूँकि तुम विद्वान हो अतः तुम्हें चित्त की सभी आशाओं को शांत करना अत्यंत आनंदप्रद होगा॥२॥

भोगं कर्म समाधिं वा कुरु विज्ञ तथापि ते।

चित्तं निरस्तसर्वाशाम- त्यर्थं रोचयिष्यति॥१६- २॥

16.3
Everyone is miserable
because they exert constant effort. But no one understands this.
A ripe mind can become unshackled upon hearing this one instruction.

प्रयत्न से ही सभी दुखी हैं पर कोई इसे जानता नहीं है। इस निष्पाप उपदेश से ही भाग्यवान व्यक्ति सभी वृत्तियों से रहित हो जाते हैं॥३॥

आयासात्सकलो दुःखी नैनं जानाति कश्चन।

अनेनैवोपदेशेन धन्यः प्राप्नोति निर्वृतिम्॥१६- ३॥

16.4
The master idler,
to whom even blinking is a bother, is happy.
But he is the only one.

जिसको पलकों का खोलना और बंद करना भी कार्य लगता है उस परम आलसी के लिए ही सुख है अन्य किसी के लिए किसी भी प्रकार से नहीं॥४॥

व्यापारे खिद्यते यस्तु निमेषोन्मेषयोरपि।

तस्यालस्य धुरीणस्य सुखं नन्यस्य कस्यचित्॥१६- ४॥

16.5
When the mind is free of opposites
like “This is done,” and “This is yet undone,” one becomes indifferent to
merit, wealth, pleasure and liberation.

यह करना चाहिए और यह नहीं जब मन इस प्रकार के द्वंद्वों से से मुक्त हो जाता है तब उसको धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की अपेक्षा (इच्छा) नहीं रहती॥५॥

इदं कृतमिदं नेति द्वंद्वैर्मुक्तं यदा मनः।

धर्मार्थकाममोक्षेषु निरपेक्षं तदा भवेत्॥१६- ५॥

16.6
One who abhors sense objects avoids them. One who desires them becomes ensnared. One who neither abhors nor desires
is neither detached nor attached.

न विषयों से द्वेष करने वाला विरक्त, न ही विषयों में आसक्त रागवान, वह तो निश्चय ही विषयों के ग्रहण और त्याग से विहीन है॥६॥

विरक्तो विषयद्वेष्टा रागी विषयलोलुपः।

ग्रहमोक्षविहीनस्तु न विरक्तो न रागवान्॥१६- ६॥

16.7
As long as there is desire–
which is the absence of discrimination– there will be attachment and non-attachment. This is the cause of the world.

जब तक (विषयों के) ग्रहण और त्याग की कामना रहती है तब तक संसार रूपी वृक्ष का अंकुर विद्यमान है, अतः विचारहीन अवस्था का आश्रय लो॥७॥

हेयोपादेयता तावत्- संसारविटपांकुरः।

स्पृहा जीवति यावद् वै निर्विचारदशास्पदम्॥१६- ७॥

16.8
Indulgence creates attachment. Aversion creates abstinence.
Like a child, the sage is free of both and thus lives on as a child.

प्रवृत्ति से आसक्ति और निवृत्ति से द्वेष उत्पन्न होता है अतः बुद्धिमान, बालक के समान निर्द्वंद्व होकर स्थित रहे॥८॥

प्रवृत्तौ जायते रागो निर्वृत्तौ द्वेष एव हि।

निर्द्वन्द्वो बालवद् धीमान् एवमेव व्यवस्थितः॥१६- ८॥

16.9
One who is attached to the world
thinks renouncing it will relieve his misery. One who is attached to nothing is free
and does not feel miserable
even in the world.

विषय में आसक्त पुरुष दुःख से बचने के लिए संसार का त्याग करना चाहता है पर वह विरक्त ही सुखी है जो उन दुखों में भी खेद नहीं करता है॥९॥

हातुमिच्छति संसारं रागी दुःखजिहासया।

वीतरागो हि निर्दुःखस्- तस्मिन्नपि न खिद्यति॥१६- ९॥

16.10
He who claims liberation as his own, as an attainment of a person,
is neither enlightened nor a seeker. He suffers his own misery.

जो मोक्ष भी चाहता है और इस शरीर में आसक्ति भी रखता है, वह न ज्ञानी है और न योगी बल्कि केवल दुःख को प्राप्त करने वाला है॥१०॥

यस्याभिमानो मोक्षेऽपि देहेऽपि ममता तथा।

न च ज्ञानी न वा योगी केवलं दुःखभागसौ॥१६- १०॥

16.11
Though Hara, Hari
or the lotus-born Brahma himself instruct you,
until you know nothing
you will never know Self.

यदि तुम्हारे उपदेशक साक्षात् शिव, विष्णु या ब्रह्मा भी हों तो भी सब कुछ विस्मरण किये बिना तुम आत्म स्वरुप को प्राप्त नहीं होगे॥११॥

हरो यद्युपदेष्टा ते हरिः कमलजोऽपि वा।

तथापि न तव स्वाथ्यं सर्वविस्मरणादृते॥१६- ११॥

17: The True Knower

Ashtavakra said:

17.1
Ashtavakra says: He has attained the fruits of Knowledge and Yoga both, who is content, is of purified senses, and always enjoys his solitude.॥1॥

अष्टावक्र कहते हैं – उन्होंने ज्ञान और योग (दोनों) का फल प्राप्त कर लिया है जो सदा संतुष्ट, शुद्ध इन्द्रियों वाले और एकांत में रमने वाले हैं ॥१॥

अष्टावक्र उवाच – आचक्ष्व शृणु वा तात नानाशास्त्राण्यनेकशः।

तृप्तः स्वच्छेन्द्रियो नित्यं एकाकी रमते तु यः॥१७- १॥

17.2
The knower of truth is never troubled by anything in this world, for the whole world is completely pervaded by that Brahma(Lord) alone.॥2॥

तत्त्व(ब्रह्म) को जानने वाला कभी भी किसी बात से इस संसार में दुखी नहीं होता है क्योंकि उस एक ब्रह्म से ही यह सम्पूर्ण विश्व पूर्णतः व्याप्त है॥२॥

न कदाचिज्जगत्यस्मिन् तत्त्वज्ञा हन्त खिद्यति।

यत एकेन तेनेदं पूर्णं ब्रह्माण्डमण्डलम्॥१७- २॥

17.3
None of the senses can please a man, who is established in Self, just as Neem leaves do not please the elephant that likes Sallaki leaves.॥3॥

अपनी आत्मा में रमण करने वाला किसी विषय को प्राप्त करके हर्षित नहीं होता जैसे कि सलाई के पत्तों से प्रेम करने वाला हाथी नीम के पत्तों को पाकर हर्ष नहीं करता है॥३॥

न जातु विषयाः केऽपि स्वारामं हर्षयन्त्यमी।

सल्लकीपल्लवप्रीत- मिवेभं निंबपल्लवाः॥१७- ३॥

17.4
Such man is rare who is not attached to the pleasures enjoyed, and does not desire pleasures which are unattained.॥4॥

जिसकी प्राप्त हो चुके भोगों में आसक्ति नहीं है और न प्राप्त हुए भोगों की इच्छा नहीं है, ऐसा व्यक्ति इस संसार में दुर्लभ है॥४॥

यस्तु भोगेषु भुक्तेषु न भवत्यधिवासिता।

अभुक्तेषु निराकांक्षी तदृशो भवदुर्लभः॥१७- ४॥

17.5
People desirous of worldly pleasures are seen and people desirous of liberation are also seen in this world.
But one who is indifferent to both of these desires is really rare.॥5॥

इस संसार में सांसारिक भोगों की इच्छा वाले भी देखे जाते हैं और मोक्ष की इच्छा वाले भी पर इन दोनों इच्छाओं से रहित महापुरुष का मिलना दुर्लभ है॥५॥

बुभुक्षुरिह संसारे मुमुक्षुरपि दृश्यते।

भोगमोक्षनिराकांक्षी विरलो हि महाशयः॥१७- ५॥

17.6
Only few great souls are free from attachment and repulsion to righteousness, wealth, desires, liberation, life and death.॥6॥

धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, जीवन और मृत्यु में उपयोगिता और अनुपयोगिता की समता किसी महात्मा में ही होती है॥६॥

धर्मार्थकाममोक्षेषु जीविते मरणे तथा।

कस्याप्युदारचित्तस्य हेयोपादेयता न हि॥१७- ६॥

17.7
He neither desires end of this world, nor despise its continued existence.
He lives the life as it is, feeling content and grateful.॥7॥

न विश्व के लीन होने की इच्छा और न ही इसकी स्थिति से द्वेष, जैसे जीवन है (वे महात्मा) उसी में आनंदित और कृतकृत्य रहते हैं॥७॥

वांछा न विश्वविलये न द्वेषस्तस्य च स्थितौ।

यथा जीविकया तस्माद् धन्य आस्ते यथा सुखम्॥१७- ७॥

17.8
Blessed by this knowledge, subsiding intelligence in Self, they stay content even in seeing, hearing, touching and eating.॥8॥

इस ज्ञान से कृतार्थ होकर बुद्धि को अन्तर्हित(विलीन) करके देखते हुए, सुनते हुए, स्पर्श करते हुए, सूंघते हुए और खाते हुए सुखपूर्वक रहते हैं॥८॥

कृतार्थोऽनेन ज्ञानेने- त्येवं गलितधीः कृती।

पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन्न् अश्नन्नस्ते यथा सुखम्॥१७- ८॥

17.9
Keeping their gaze unoccupied, having stilled the tendency of their senses, they have no attachment or aversion for this feeble world.॥9॥

दृष्टि को शून्य और अस्थिर इन्द्रियों की चेष्टा को नष्ट करके, इस अशक्त संसार रूपी सागर से न तो आसक्ति रखते हैं और न ही विरक्ति॥९॥

शून्या दृष्टिर्वृथा चेष्टा विकलानीन्द्रियाणि च।

न स्पृहा न विरक्तिर्वा क्षीणसंसारसागरे॥१७- ९॥

17.10
Aha! in that supreme state, where there is no wakening, no sleep, no opening or closing of eyes, rarely someone with liberated consciousness stays.॥10॥

न जगता ही है और न सोता ही है, न ही आँखें खोलता या बंद करता है, अहा! उस परम अवस्था में कोई मुक्त चेतना वाला विरला ही रहता है॥१०॥

न जगर्ति न निद्राति नोन्मीलति न मीलति।

अहो परदशा क्वापि वर्तते मुक्तचेतसः॥१७- १०॥

17.11
Always established in self, with stainless intent everywhere, free from all the desires, such a liberated man always shines.॥11॥

सदा स्वयं में स्थित, सर्वत्र स्वच्छ प्रयोजन वाला, समस्त वासनाओं से मुक्त, मुक्त पुरुष सर्वत्र सुशोभित होता है॥११॥

सर्वत्र दृश्यते स्वस्थः सर्वत्र विमलाशयः।

समस्तवासना मुक्तो मुक्तः सर्वत्र राजते॥१७- ११॥

17.12
Even in, seeing, hearing, feeling, smelling, eating, taking, speaking, walking, desiring and not desiring such a great soul basically does nothing.॥12॥

देखते हुए, सुनते हुए, स्पर्श करते हुए, सूंघते हुए, खाते हुए, लेते हुए, बोलते हुए, चलते हुए, इच्छा करते हुए और इच्छा न करते हुए, ऐसा महात्मा मुक्त ही है(वस्तुतः कुछ नहीं करता)॥१२॥

पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन्न् अश्नन् गृण्हन् वदन् व्रजन्।

ईहितानीहितैर्मुक्तो मुक्त एव महाशयः॥१७- १२॥

17.13
He neither blames nor praises, he neither gives nor takes.
Indifferent from all these he is free in every way.॥13॥

न निंदा करता है और न प्रशंसा करता है, न लेता है, न देता है, इन सबमें अनासक्त वह सब प्रकार से मुक्त है॥१३॥

न निन्दति न च स्तौति न हृष्यति न कुप्यति।

न ददाति न गृण्हाति मुक्तः सर्वत्र नीरसः॥१७- १३॥

17.14
One who remains unperturbed on seeing women with desire or death, established in self, that noble man is liberated.॥14॥

अनुराग-युक्त स्त्रियों को देख कर अथवा मृत्यु को उपस्थित देख कर विचलित न होने वाला, स्वयं में स्थित वह महात्मा मुक्त ही है॥१४॥

सानुरागां स्त्रियं दृष्ट्वा मृत्युं वा समुपस्थितं।

अविह्वलमनाः स्वस्थो मुक्त एव महाशयः॥१७- १४॥

17.15
For such a man with patience, pleasure and pain, men and women, success and failure are alike.
For him everything is equivalent.॥15॥

धीर पुरुष सुख में, दुःख में, पुरुष में, नारी में, संपत्ति में और विपत्ति में अंतर न देखता हुआ सर्वत्र समदर्शी होता है॥१५॥

सुखे दुःखे नरे नार्यां संपत्सु विपत्सु च।

विशेषो नैव धीरस्य सर्वत्र समदर्शिनः॥१७- १५॥

17.16
In a person free from attachment for this world, there is neither aggression nor submissiveness, neither pride nor lowliness, neither surprise nor agitation.॥16॥

क्षीण संसार वाले पुरुष में न हिंसा और न करुणा, न गर्व और न दीनता, न आश्चर्य और न क्षोभ ही होते हैं॥१६॥

न हिंसा नैव कारुण्यं नौद्धत्यं न च दीनता।

नाश्चर्यं नैव च क्षोभः क्षीणसंसरणे नरे॥१७- १६॥

17.17
Liberated man neither dislikes sense gratification nor likes them, hence he remains unperturbed in their achievement and non-achievement.॥17॥

मुक्त पुरुष न तो विषयों से द्वेष करता है और न आसक्ति ही, (अतः) उनकी प्राप्ति और अप्राप्ति में सदा समान मन वाला रहता है॥१७॥

न मुक्तो विषयद्वेष्टा न वा विषयलोलुपः।

असंसक्तमना नित्यं प्राप्ताप्राप्तमुपाश्नुते॥१७- १७॥

17.18
Beyond doubts and solutions, good and bad, a person with still mind, remains established in self.॥18॥

संदेह और समाधान एवं हित और अहित की कल्पना से परे, शून्य चित्त वाला पुरुष कैवल्य में ही स्थित रहता है॥१८॥

समाधानसमाधान- हिताहितविकल्पनाः।

शून्यचित्तो न जानाति कैवल्यमिव संस्थितः॥१७- १८॥

17.19
A man who is free from attachment, free of ego, with a definitive view of non-existence of this visible world, even while doing does not do anything.॥19॥

ममता रहित, अहंकार रहित और दृश्य जगत के अस्तित्व रहित होने के निश्चय वाला, सभी इच्छाओं से रहित, करता हुआ भी कुछ नहीं करता॥१९॥

निर्ममो निरहंकारो न किंचिदिति निश्चितः।

अन्तर्गलितसर्वाशः कुर्वन्नपि करोति न॥१७- १९॥

17.20
Having attained a state of mind which is devoid of delusion, dream and inertia and full of light, one should discard all mental desires.॥20॥

कोई भी मन की मोह, स्वप्न और जड़ता से रहित, प्रकाशित अवस्था को प्राप्त कर मन की इच्छाओं से रहित हो जाये॥२०॥

मनःप्रकाशसंमोह स्वप्नजाड्यविवर्जितः।

दशां कामपि संप्राप्तो भवेद् गलितमानसः॥१७- २०॥

18: Peace

18.1
Ashtavakra says – Salutations to the One, blissful, serene light like awareness which removes delusion like a dream.॥1॥

अष्टावक्र कहते हैं – जिस बोध का उदय होने पर, जागने पर स्वप्न के समान भ्रम की निवृत्ति हो जाती है, उस एक, सुखस्वरूप शांत प्रकाश को नमस्कार है॥१॥

अष्टावक्र उवाच – यस्य बोधोदये तावत्- स्वप्नवद् भवति भ्रमः।

तस्मै सुखैकरूपाय नमः शान्ताय तेजसे॥१८- १॥

18.2
One may indulge in all sorts of pleasure by acquiring various objects of enjoyment, but one cannot be truly happy without their inner renunciation.॥2॥

जगत के सभी पदार्थों को प्राप्त करके कोई बहुत से भोग प्राप्त कर सकता है पर उन सबका आतंरिक त्याग किये बिना सुखी नहीं हो सकता॥२॥

अर्जयित्वाखिलान् अर्थान् भोगानाप्नोति पुष्कलान्।

न हि सर्वपरित्याजम- न्तरेण सुखी भवेत्॥१८- २॥

18.3
How can there be happiness, for one whose mind is burnt by the intense flame of what to be done and what not to be done.
How can one attain bliss of the nectar-stream of peace without being desire-less?॥3॥

जिसका मन यह कर्तव्य है और यह अकर्तव्य आदि दुखों की तीव्र ज्वाला से झुलस रहा है, उसे भला कर्म त्याग रूपी शांति की अमृत-धारा का सेवन किये बिना सुख की प्राप्ति कैसे हो सकती है॥३॥

कर्तव्यदुःखमार्तण्डज्वाला दग्धान्तरात्मनः।

कुतः प्रशमपीयूषधारा- सारमृते सुखम्॥१८- ३॥

18.4
This existence is just imagination. It is nothing in reality, but there is no non-being for natures that know how to distinguish being from non being.॥4॥

यह संसार केवल एक भावना मात्र है, परमार्थतः कुछ भी नहीं है।
भाव और अभाव के रूप में स्वभावतः स्थित पदार्थों का कभी अभाव नहीं हो सकता॥४॥

न दूरं न च संकोचाल्- लब्धमेवात्मनः पदं।

निर्विकल्पं निरायासं निर्विकारं निरंजनम्॥१८- ५॥

18.5
The realm of one’s own self is not far away, and nor can it be achieved by the addition of limitations to its nature. It is unimaginable, effortless, unchanging and spotless.॥5॥

आत्मा न तो दूर है और न पास, वह तो प्राप्त ही है, तुम स्वयं ही हो उसमें न विकल्प है, न प्रयत्न, न विकार और न मल ही॥५॥

न दूरं न च संकोचाल्- लब्धमेवात्मनः पदं।

निर्विकल्पं निरायासं निर्विकारं निरंजनम्॥१८- ५॥

18.6

By the simple elimination of delusion and the recognition of one’s true nature, those whose vision is unclouded live free from sorrow.॥6॥

अज्ञान मात्र की निवृत्ति और स्वरुप का ज्ञान होते ही दृष्टि का आवरण भंग हो जाता है और तत्त्व को जानने वाला शोक से रहित होकर शोभायमान हो जाता है॥६॥

व्यामोहमात्रविरतौ स्वरूपादानमात्रतः।

वीतशोका विराजन्ते निरावरणदृष्टयः॥१८- ६॥

18.7
Knowing everything as just imagination, and himself as eternally free, how should the wise man behave like a fool?॥7॥

सब कुछ कल्पना मात्र है और आत्मा नित्य मुक्त है, धीर पुरुष इस तथ्य को जान कर फिर बालक के समान क्या अभ्यास करे?॥७॥

समस्तं कल्पनामात्र- मात्मा मुक्तः सनातनः।

इति विज्ञाय धीरो हि किमभ्यस्यति बालवत्॥१८- ७॥

18.8
Knowing himself to be God and being and non-being just imagination, what should the man free from desire learn, say or do?॥8॥

आत्मा ही ब्रह्म है और भाव-अभाव कल्पित हैं – ऐसा निश्चय हो जाने पर निष्काम ज्ञानी फिर क्या जाने, क्या कहे और क्या कहे॥८॥

आत्मा ब्रह्मेति निश्चित्य भावाभावौ च कल्पितौ।

निष्कामः किं विजानाति किं ब्रूते च करोति किम्॥१८- ८॥

18.9
Considerations like ‘I am this’ or ‘I am not this’ are finished for the yogi who has gone silent realising ‘Everything is myself’.॥9॥

सब आत्मा ही है – ऐसा निश्चय करके जो चुप हो गया है, उस पुरुष के लिए यह मैं हूँ, यह मैं नहीं हूँ आदि कल्पनाएँ भी शांत हो जाती हैं॥९॥

अयं सोऽहमयं नाहं इति क्षीणा विकल्पना।

सर्वमात्मेति निश्चित्य तूष्णींभूतस्य योगिनः॥१८- ९॥

18.10
For the yogi who has found peace, there is no distraction or one-pointedness, no higher knowledge or ignorance, no pleasure and no pain.॥10॥

अपने स्वरुप में स्थित होकर शांत हुए तत्त्व ज्ञानी के लिए न विक्षेप है और न एकाग्रता, न ज्ञान है और न अज्ञान, न सुख है और न दुःख॥१०॥

न विक्षेपो न चैकाग्र्यं नातिबोधो न मूढता।

न सुखं न च वा दुःखं उपशान्तस्य योगिनः॥१८- १०॥

18.11
The dominion of heaven or beggary, gain or loss, life among men or in the forest, these make no difference to a yogi whose nature it is to be free from distinctions.॥11॥

जो योगी स्वभाव से ही विकल्प रहित है, उसके लिए अपने राज्य में या भिक्षा में, लाभ-हानि में, भीड़ में या सुने जंगल में कोई अंतर नहीं है॥११॥

स्वाराज्ये भैक्षवृत्तौ च लाभालाभे जने वने।

निर्विकल्पस्वभावस्य न विशेषोऽस्ति योगिनः॥१८- ११॥

18.12
There is no religion, wealth, sensuality or discrimination for a yogi free from the pairs of opposites such as ‘I have done this’ and ‘I have not done that’.॥12॥

यह कर लिया और यह कार्य शेष है, इन द्वंद्वों से जो मुक्त है, उसके लिए धर्म कहाँ, कर्म कहाँ, अर्थ कहाँ और विवेक कहाँ॥१२॥

क्व धर्मः क्व च वा कामः क्व चार्थः क्व विवेकिता।

इदं कृतमिदं नेति द्वन्द्वैर्मुक्तस्य योगिनः॥१८- १२॥

18.13
There is nothing needing to be done, or any attachment in his heart for the yogi liberated while still alive. Things are just for a lifetime.॥13॥

जीवन्मुक्त योगी का न तो कुछ कर्तव्य है और न ही उसके ह्रदय में कोई अनुराग है। जैसे भी जीवन बीत जाये वैसे ही उसकी स्थिति है॥१३॥

कृत्यं किमपि नैवास्ति न कापि हृदि रंजना।

यथा जीवनमेवेह जीवन्मुक्तस्य योगिनः॥१८- १३॥

18.14
There is no delusion, world, meditation on That, or liberation for the pacified great soul. All these things are just the realm of imagination.॥14॥

जो महात्मा सभी संकल्पों की सीमा पर विश्राम कर रहा है, उसके लिए मोह कहाँ, संसार कहाँ, ध्यान कहाँ और मुक्ति भी कहाँ?॥१४॥

क्व मोहः क्व च वा विश्वं क्व तद् ध्यानं क्व मुक्तता।

सर्वसंकल्पसीमायां विश्रान्तस्य महात्मनः॥१८- १४॥

18.15
He by whom all this is seen may well make out he doesn’t exist, but what is the desireless one to do? Even in seeing he does not see.॥15॥

जिसने इस संसार को वास्तव में देखा हो वह कहे कि यह नहीं है, नहीं है। जो कामना रहित है, वह तो इसको देखते हुए भी नहीं देखता॥१५॥

येन विश्वमिदं दृष्टं स नास्तीति करोतु वै।

निर्वासनः किं कुरुते पश्यन्नपि न पश्यति॥१८- १५॥

18.16
He by whom the Supreme Brahma is seen may think ‘I am Brahma’, but what is he to think who is without thought, and who sees no duality.॥16॥

जिसने अपने से भिन्न परब्रह्म को देखा हो, वह चिंतन किया करे कि वह ब्रह्म मैं हूँ पर जिसे कुछ दूसरा दिखाई नहीं देता, वह निश्चिन्त क्या विचार करे॥१६॥

येन दृष्टं परं ब्रह्म सोऽहं ब्रह्मेति चिन्तयेत्।

किं चिन्तयति निश्चिन्तो यो न पश्यति॥१८- १६॥

18.17
He achieves self-control
who sees his own distraction.
But the great soul is not distracted. He has nothing to achieve.
He has nothing to do.

He by whom inner distraction is seen may put an end to it, but the noble one is not distracted. When there is nothing to achieve, what is he to do?॥17॥

जिसने अपने स्वरुप में कभी कोई विक्षेप देखा हो वह उसको रोके। तत्त्व को जानने वाले का विक्षेप कभी होता ही नहीं है, किसी साध्य के बिना वह क्या करे॥१७॥

दृष्टो येनात्मविक्षेपो निरोधं कुरुते त्वसौ।

उदारस्तु न विक्षिप्तः साध्याभावात्करोति किम्॥१८- १७॥

18.18
The wise man, unlike the worldly man, does not see inner stillness, distraction or fault in himself, even when living like a worldly man.॥18॥

तत्त्वज्ञ तो सांसारिक लोगों से उल्टा ही होता है, वह सामान्य लोगों जैसा व्यवहार करता हुआ भी अपने स्वरुप में न समाधि देखता है, न विक्षेप और न लय ही॥१८॥

धीरो लोकविपर्यस्तो वर्तमानोऽपि लोकवत्।

नो समाधिं न विक्षेपं न लोपं स्वस्य पश्यति॥१८- १८॥

18.19
Nothing is done by him who is free from being and non-being, who is contented, desireless and wise, even if in the world’s eyes he does act.॥19॥

तत्त्वज्ञ भाव और अभाव से रहित, तृप्त और कामना रहित होता है। लौकिक दृष्टि से कुछ उल्टा-सीधा करते हुए भी वह कुछ भी नहीं करता॥१९॥

भावाभावविहीनो यस्- तृप्तो निर्वासनो बुधः।

नैव किंचित्कृतं तेन लोकदृष्ट्या विकुर्वता॥१८- १९॥

18.20
The wise man who just goes on doing what presents itself for him to do, encounters no difficulty in either activity or inactivity.॥20॥

तत्त्वज्ञ का प्रवृत्ति या निवृत्ति का दुराग्रह नहीं होता। जब जो सामने आ जाता है तब उसे करके वह आनंद से रहता है॥२०॥

प्रवृत्तौ वा निवृत्तौ वा नैव धीरस्य दुर्ग्रहः।

यदा यत्कर्तुमायाति तत्कृत्वा तिष्ठते सुखम्॥१८- २०॥

18.21
He who is desireless, self-reliant, independent and free of bonds functions like a dead leaf blown about by the wind of causality.॥21॥

ज्ञानी कामना, आश्रय और परतंत्रता आदि के बंधनों से सर्वथा मुक्त होता है। प्रारब्ध रूपी वायु के वेग से उसका शरीर उसी प्रकार गतिशील रहता है जैसे वायु के वेग से सूखा पत्ता॥२१॥

निर्वासनो निरालंबः स्वच्छन्दो मुक्तबन्धनः।

क्षिप्तः संस्कारवातेन चेष्टते शुष्कपर्णवत्॥१८- २१॥

18.22
There is neither joy nor sorrow for one who has transcended samsara. He lives always with a peaceful mind and as if without a body.॥22॥

जो संसार से मुक्त है वह न कभी हर्ष करता है और न विषाद। उसका मन सदा शीतल रहता है और वह (शरीर रहते हुए भी) विदेह के समान सुशोभित होता है॥२२॥

असंसारस्य तु क्वापि न हर्षो न विषादिता।

स शीतलहमना नित्यं विदेह इव राजये॥१८- २२॥

18.23
He whose joy is in himself, and who is peaceful and pure within has no desire for renunciation or sense of loss in anything.॥23॥

जिसका अंतर्मन शीतल और स्वच्छ है, जो आत्मा में ही रमण करता है, उस धीर पुरुष की न तो किसी त्याग की इच्छा होती है और न कुछ पाने की आशा॥२३॥

कुत्रापि न जिहासास्ति नाशो वापि न कुत्रचित्।

आत्मारामस्य धीरस्य शीतलाच्छतरात्मनः॥१८- २३॥

18.24
For the man with a naturally empty mind, doing just as he pleases, there is no such thing as pride or false humility, as there is for the natural man.॥24॥

जिस धीर पुरुष का चित्त स्वभाव से ही निर्विषय है, वह साधारण मनुष्य के समान प्रारब्ध वश बहुत से कार्य करता है पर उसका उसे न तो मान होता है और न अपमान ही॥२४॥

प्रकृत्या शून्यचित्तस्य कुर्वतोऽस्य यदृच्छया।

प्राकृतस्येव धीरस्य न मानो नावमानता॥१८- २४॥

18.25
This action was done by the body but not by me’. The pure-natured person thinking like this, is not acting even when acting.॥25॥

‘यह कर्म शरीर ने किया है, मैंने नहीं, मैं तो शुद्ध स्वरुप हूँ’ – इस प्रकार जिसने निश्चय कर लिया है, वह कर्म करता हुआ भी नहीं करता॥२५॥

कृतं देहेन कर्मेदं न मया शुद्धरूपिणा।

इति चिन्तानुरोधी यः कुर्वन्नपि करोति न॥१८- २५॥

18.26
He who acts without being able to say why, but not because he is a fool, he is one liberated while still alive, happy and blessed. He thrives even in samsara.॥26॥

सुखी और श्रीमान् जीवन्मुक्त विषयी के समान कार्य करता है, परन्तु विषयी नहीं होता है वह तो सांसारिक कार्य करता हुआ भी शोभा को प्राप्त होता है॥२६॥

अतद्वादीव कुरुते न भवेदपि बालिशः।

जीवन्मुक्तः सुखी श्रीमान् संसरन्नपि शोभते॥१८- २६॥

18.27
He who has had enough of endless considerations and has attained to peace, does not think, know, hear or see.॥27॥

जो धीर पुरुष अनेक विचारों से थककर अपने स्वरूप में विश्राम पा चुका है, वह न कल्पना करता है, न जानता है, न सुनता है और न देखता ही है॥२७॥

नाविचारसुश्रान्तो धीरो विश्रान्तिमागतः।

न कल्पते न जाति न शृणोति न पश्यति॥१८- २७॥

18.28
He who is beyond mental stillness and distraction, does not desire either liberation or anything else. Recognising that things are just constructions of the imagination, that great soul lives as God here and now.॥28॥

ऐसा ज्ञानी समाधि में आग्रह न होने के कारण मुमुक्षु नहीं और विक्षेप न होने के कारण विषयी नहीं है। मेरे अतिरिक्त जो कुछ भी दिख रहा है वह सब कल्पित ही है – ऐसा निश्चय करके सबको देखता हुआ वह ब्रह्म ही है॥२८॥

असमाधेरविक्षेपान् न मुमुक्षुर्न चेतरः।

निश्चित्य कल्पितं पश्यन् ब्रह्मैवास्ते महाशयः॥१८- २८॥

18.29
He who feels responsibility within, acts even when not acting, but there is no sense of done or undone for the wise man who is free from the sense of responsibility.॥29॥

जिसके अन्तः करण में अहंकार विद्यमान है वह देखने में कर्म न करे तो भी करता है। पर जो धीर पुरुष निरहंकार है, वह सब कुछ करते हुए भी कर्म नहीं करता॥२९॥

यस्यान्तः स्यादहंकारो न करोति करोति सः।

निरहंकारधीरेण न किंचिदकृतं कृतम्॥१८- २९॥

18.30
The mind of the liberated man is not upset or pleased. It shines unmoving, desireless, and free from doubt.॥30॥

मुक्त पुरुष के चित्त में न उद्वेग है, न संतोष और न कर्तृत्व का अभिमान ही है उसके चित्त में न आशा है, न संदेह ऐसा चित्त ही सुशोभित होता है॥३०॥

नोद्विग्नं न च सन्तुष्ट- मकर्तृ स्पन्दवर्जितं।

निराशं गतसन्देहं चित्तं मुक्तस्य राजते॥१८- ३०॥

18.31
He whose mind does not set out to meditate or act, meditates and acts without an object.॥31॥

जीवन्मुक्त का चित्त ध्यान से विरत होने के लिए और व्यवहार करने की चेष्टा नहीं करता है। निमित्त के शून्य होने पर वह ध्यान से विरत भी होता है और व्यवहार भी करता है॥३१॥

निर्ध्यातुं चेष्टितुं वापि यच्चित्तं न प्रवर्तते।

निर्निमित्तमिदं किंतु निर्ध्यायेति विचेष्टते॥१८- ३१॥

18.32
A stupid man is bewildered when he hears the real truth, while even a clever man is humbled by it just like the fool.॥32॥

अविवेकी पुरुष यथार्थ तत्त्व का वर्णन सुनकर और अधिक मोह को प्राप्त होता है या संकुचित हो जाता है। कभी-कभी तो कुछ बुद्धिमान भी उसी अविवेकी के समान व्यवहार करने लगते हैं॥३२॥

तत्त्वं यथार्थमाकर्ण्य मन्दः प्राप्नोति मूढतां।

अथवा याति संकोचम- मूढः कोऽपि मूढवत्॥१८- ३२॥

18.33
The ignorant make a great effort to practice one-pointedness and the stopping of thought, while the wise see nothing to be done and remain in themselves like those asleep.॥33॥

मूढ़ पुरुष बार-बार (चित्त की ) एकाग्रता और निरोध का अभ्यास करते हैं। धीर पुरुष सुषुप्त के समान अपने स्वरूप में स्थित रहते हुए कुछ भी कर्तव्य रूप से नहीं करते॥३३॥

एकाग्रता निरोधो वा मूढैरभ्यस्यते भृशं।

धीराः कृत्यं न पश्यन्ति सुप्तवत्स्वपदे स्थिताः॥१८- ३३॥

18.34
The stupid does not attain cessation whether he acts or abandons action, while the wise man find peace within simply by knowing the truth.॥34॥

मूढ़ पुरुष प्रयत्न से या प्रयत्न के त्याग से शांति प्राप्त नहीं करता पर प्रज्ञावान पुरुष तत्त्व के निश्चय मात्र से शांति प्राप्त कर लेता है॥३४॥

अप्रयत्नात् प्रयत्नाद् वा मूढो नाप्नोति निर्वृतिं।

तत्त्वनिश्चयमात्रेण प्राज्ञो भवति निर्वृतः॥१८- ३४॥

18.35
People cannot come to know themselves by practices – pure awareness, clear, complete, beyond multiplicity and faultless though they are.॥35॥

आत्मा के सम्बन्ध में जो लोग अभ्यास में लग रहे हैं, वे अपने शुद्ध, बुद्ध, प्रिय, पूर्ण, निष्प्रपंच और निरामय ब्रह्म-स्वरूप को नहीं जानते॥३५॥

शुद्धं बुद्धं प्रियं पूर्णं निष्प्रपंचं निरामयं।

आत्मानं तं न जानन्ति तत्राभ्यासपरा जनाः॥१८- ३५॥

18.36
The stupid does not achieve liberation even through regular practice, but the fortunate remains free and actionless simply by discrimination.॥36॥

अज्ञानी मनुष्य कर्म रूपी अभ्यास से मुक्ति नहीं पा सकता और ज्ञानी कर्म रहित होने पर भी केवल ज्ञान से मुक्ति प्राप्त कर लेता है ॥३६॥

नाप्नोति कर्मणा मोक्षं विमूढोऽभ्यासरूपिणा।

धन्यो विज्ञानमात्रेण मुक्तस्तिष्ठत्यविक्रियः॥१८- ३६॥

18.37
The stupid does not attain Godhead because he wants to become it, while the wise man enjoys the Supreme Godhead without even wanting it.॥37॥

अज्ञानी को ब्रह्म का साक्षात्कार नहीं हो सकता क्योंकि वह ब्रह्म होना चाहता है। ज्ञानी पुरुष इच्छा न करने पर भी परब्रह्म बोध स्वरूप में रहता है॥३७॥

मूढो नाप्नोति तद् ब्रह्म यतो भवितुमिच्छति।

अनिच्छन्नपि धीरो हि परब्रह्मस्वरूपभाक्॥१८- ३७॥

18.38
Even when living without any support and eager for achievement, the stupid are still nourishing samsara, while the wise have cut at the very root of its unhappiness.॥38॥

अज्ञानी निराधार आग्रहों में पड़कर संसार का पोषण करते रहते हैं। ज्ञानियों ने सभी अनर्थों की जड़ इस संसार की सत्ता का ही पूर्ण नाश कर दिया है॥३८॥

निराधारा ग्रहव्यग्रा मूढाः संसारपोषकाः।

एतस्यानर्थमूलस्य मूलच्छेदः कृतो बुधैः॥१८- ३८॥

18.39
The stupid does not find peace because he is wanting it, while the wise discriminating the truth is always peaceful minded.॥39॥

अज्ञानी शांति नहीं प्राप्त कर सकता क्योंकि वह शांत होने की इच्छा से ग्रस्त है। ज्ञानी पुरुष तत्त्व का दृढ़ निश्चय करके सदैव शांत चित्त ही रहता है॥३९॥

न शान्तिं लभते मूढो यतः शमितुमिच्छति।

धीरस्तत्त्वं विनिश्चित्य सर्वदा शान्तमानसः॥१८- ३९॥

18.40
How can there be self knowledge for him whose knowledge depends on what he sees. The wise do not see this and that, but see themselves as unending.॥40॥

अज्ञानी को आत्म-साक्षात्कार कैसे हो सकता है जब वह दृश्य पदार्थों के आश्रय को स्वीकार करता है। ज्ञानी पुरुष तो वे हैं जो दृश्य पदार्थों को न देखते हुए अपने अविनाशी स्वरूप को ही देखते हैं॥४०॥

क्वात्मनो दर्शनं तस्य यद् दृष्टमवलंबते।

धीरास्तं तं न पश्यन्ति पश्यन्त्यात्मानमव्ययम्॥१८- ४०॥

18.41
How can there be cessation of thought for the misguided who is striving for it. Yet it is there always naturally for the wise man delighted in self.॥41॥

जो आग्रह करता है, उस मूर्ख का चित्त निरुद्ध कहाँ है? आत्मा में रमण करने वाले धीर पुरुष का चित्त तो सदैव स्वाभाविक रूप से निरुद्ध ही रहता है॥४१॥

क्व निरोधो विमूढस्य यो निर्बन्धं करोति वै।

स्वारामस्यैव धीरस्य सर्वदासावकृत्रिमः॥१८- ४१॥

18.42
Some think that something exists, and others that nothing does. Rare is the man who does not think either, and is thereby free from distraction.॥42॥

कोई पदार्थ की सत्ता की भावना करता है और कोई पदार्थों की असत्ता की। ज्ञानी तो भाव-अभाव दोनों की भावना को छोड़कर निश्चिन्त रहता है॥४२॥

भावस्य भावकः कश्चिन् न किंचिद् भावकोपरः।

उभयाभावकः कश्चिद् एवमेव निराकुलः॥१८- ४२॥

18.43
Those of weak intelligence think of themselves as pure non-duality, but because of their delusion do not know this, and remain unfulfilled all their lives.॥43॥

बुद्धिहीन पुरुष अज्ञानवश अपने शुद्ध, अद्वितीय स्वरूप का ज्ञान तो प्राप्त करते नहीं पर केवल भावना करते हैं, उन्हें जीवन पर्यन्त शांति नहीं मिलती॥४३॥

शुद्धमद्वयमात्मानं भावयन्ति कुबुद्धयः।

न तु जानन्ति संमोहा- द्यावज्जीवमनिर्वृताः॥१८- ४३॥

18.44
The mind of the man seeking liberation can find no resting place within, but the mind of the liberated man is always free from desire by the very fact of being without a resting place.॥44॥

मुमुक्षु पुरुष की बुद्धि कुछ आश्रय ग्रहण किये बिना नहीं रहती। मुक्त पुरुष की बुद्धि तो सब प्रकार से निष्काम और निराश्रय ही रहती है॥४४॥

मुमुक्षोर्बुद्धिरालंब- मन्तरेण न विद्यते।

निरालंबैव निष्कामा बुद्धिर्मुक्तस्य सर्वदा॥१८- ४४॥

18.45
Seeing the tigers of the senses, the frightened refuge-seekers at once enter the cave in search of cessation of thought and one-pointedness.॥45॥

अज्ञानी पुरुष विषयरूपी मतवाले हाथियों को देखकर भयभीत हो जाते हैं और शरण के लिए तुरंत निरोध और एकाग्रता की सिद्धि के लिए झटपट चित्त की गुफा में घुस जाते है॥४५॥

विषयद्वीपिनो वीक्ष्य चकिताः शरणार्थिनः।

विशन्ति झटिति क्रोडं निरोधैकाग्रसिद्धये॥१८- ४५॥

18.46
Seeing the desireless lion the elephants of the senses silently run away, or, if they cannot, serve him like courtiers.॥46॥

कामना रहित ज्ञानी सिंह है, उसे देखते ही विषय रूपी मतवाले हाथी चुपचाप भाग जाते हैं उनकी एक नहीं चलती उलटे वे तरह-तरह से खुशामद करके सेवा करते हैं॥४६॥

निर्वासनं हरिं दृष्ट्वा तूष्णीं विषयदन्तिनः।

पलायन्ते न शक्तास्ते सेवन्ते कृतचाटवः॥१८- ४६॥

18.47
The man who is free from doubts and whose mind is free does not bother about means of liberation. Whether seeing, hearing, feeling smelling or tasting, he lives at ease.॥47॥

शंका रहित ज्ञानी पुरुष मुक्ति के साधनों का अभ्यास नहीं करता, वह तो देखते, सुनते, छूते, सूंघते, भोगते हुए भी आनंद में मग्न रहता है॥४७॥

न मुक्तिकारिकां धत्ते निःशङ्को युक्तमानसः।

पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन्नश्नन्नास्ते यथासुखम्॥१८- ४७॥

18.48
He whose mind is pure and undistracted from the simple hearing of the Truth sees neither something to do nor something to avoid nor a cause for indifference.॥48॥

शुद्ध-बुद्धि पुरुष वस्तु-तत्त्व के केवल सुनने मात्र से आकुलता रहित हो जाता है, फिर आचार-अनाचार या उदासीनता पर उसकी दृष्टि नहीं जाती॥४८॥

वस्तुश्रवणमात्रेण शुद्धबुद्धिर्निराकुलः।

नैवाचारमनाचार- मौदास्यं वा प्रपश्यति॥१८- ४८॥

18.49
The straightforward person does whatever arrives to be done, good or bad, for his actions are like those of a child.॥49॥

स्वभाव में स्थित ज्ञानी, शुभ हो या अशुभ, जो जब करने के लिए सामने आ जाता है, तब वह उसे बालक की चेष्टा के समान सरलता से कर डालता है॥४९॥

यदा यत्कर्तुमायाति तदा तत्कुरुते ऋजुः।

शुभं वाप्यशुभं वापि तस्य चेष्टा हि बालवत्॥१८- ४९॥

18.50
By inner freedom one attains happiness, by inner freedom one reaches the Supreme, by inner freedom one comes to absence of thought, by inner freedom to the Ultimate State.॥50॥

स्वतंत्रता से ही सुख की प्राप्ति होती है। स्वतंत्रता से ही परम तत्त्व की उपलब्धि होती है। स्वतंत्रता से ही परम शांति की प्राप्ति होती है। स्वतंत्रता से ही परम पद मिलता है॥५०॥

स्वातंत्र्यात्सुखमाप्नोति स्वातंत्र्याल्लभते परं।

स्वातंत्र्यान्निर्वृतिं गच्छेत्- स्वातंत्र्यात् परमं पदम्॥१८- ५०॥

18.51
When one sees oneself as neither the doer nor the reaper of the consequences, then all mind waves come to an end.॥51॥

जब साधक अपने आपको अकर्ता और अभोक्ता निश्चय कर लेता है तब उसके चित्त की सभी वृत्तियाँ क्षीण हो जाती हैं॥५१॥

अकर्तृत्वमभोक्तृत्वं स्वात्मनो मन्यते यदा।

तदा क्षीणा भवन्त्येव समस्ताश्चित्तवृत्तयः॥१८- ५१॥

18.52
The spontaneous unassumed behaviour of the wise is noteworthy, but not the deliberate, intentional stillness of the fool.॥52॥

धीर पुरुष की स्वाभाविक स्थिति विक्षोभ युक्त होने पर भी श्रेष्ठ है पर जिसके चित्त में अनेक इच्छाएं भरी हैं उस अज्ञानी पुरुष पर बनावटी शांति शोभा नहीं पाती॥५२॥

उच्छृंखलाप्यकृतिका स्थितिर्धीरस्य राजते।

न तु सस्पृहचित्तस्य शान्तिर्मूढस्य कृत्रिमा॥१८- ५२॥

18.53
The wise who are rid of imagination, unbound and with unfettered awareness may enjoy themselves in the midst of many goods, or alternatively go off to mountain caves.॥53॥

धीर पुरुष बड़े भोगों में आनंद करते हैं और पर्वतों की गहन गुफाओं में भी निवास करते हैं पर वे कल्पना, बंधन और बुद्धि की वृत्तियों से मुक्त होते हैं॥५३॥

विलसन्ति महाभोगै- र्विशन्ति गिरिगह्वरान्।

निरस्तकल्पना धीरा अबद्धा मुक्तबुद्धयः॥१८- ५३॥

18.54
There is no attachment in the heart of a wise man whether he sees or pays homage to a learned brahmin, a celestial being, a holy place, a woman, a king or a friend.॥54॥

धीर पुरुष शास्त्रज्ञ ब्राह्मण, देवता, तीर्थ, स्त्री, राजा और प्रिय को देख कर उनका स्वागत करता है पर उसके ह्रदय में कोई कामना नहीं होती॥५४॥

श्रोत्रियं देवतां तीर्थम- ङ्गनां भूपतिं प्रियं।

दृष्ट्वा संपूज्य धीरस्य न कापि हृदि वासना॥१८- ५४॥

18.55
A yogi is not in the least put out even when humiliated by the ridicule of servants, sons, wives, grandchildren or other relatives.॥55॥

सेवक, पुत्र, स्त्री, नाती और सगोत्र द्वारा हंसी उदय जाने पर, धिक्कारने पर भी योगी के चित्त में थोड़ा सा विकार भी उत्पन्न नहीं होता॥५५॥

भृत्यैः पुत्रैः कलत्रैश्च दौहित्रैश्चापि गोत्रजैः।

विहस्य धिक्कृतो योगी न याति विकृतिं मनाक्॥१८- ५५॥

18.56
Even when pleased he is not pleased, not suffering even when in pain. Only those like him can know the wonderful state of such a man.॥56॥

लौकिक दृष्टि से प्रसन्न दिखने पर वह प्रसन्न नहीं होता और दुखी दिखने पर दुखी नहीं होता। उसकी उस आश्चर्यमय दशा को उसके समान लोग ही जान सकते हैं॥५६॥

सन्तुष्टोऽपि न सन्तुष्टः खिन्नोऽपि न च खिद्यते।

तस्याश्चर्यदशां तां तादृशा एव जानते॥१८- ५६॥

18.57
It is the sense of responsibility which is samsara. The wise who are of the form of emptiness, formless, unchanging and spotless see no such thing.॥57॥

कर्तव्य बुद्धि का नाम ही संसार है, विद्वान लोग उस कर्तव्यता को नहीं देखते क्योंकि उनकी बुद्धि शून्याकार, निराकार, निर्विकार और निरामय होती है॥५७॥

कर्तव्यतैव संसारो न तां पश्यन्ति सूरयः।

शून्याकारा निराकारा निर्विकारा निरामयाः॥१८- ५७॥

18.58
Even when doing nothing the fool is agitated by restlessness, while a skillful man remains undisturbed even when doing what there is to do.॥58॥

अज्ञानी पुरुष कुछ न करते हुए भी क्षोभवश सदा व्यग्र ही रहता है। योगी पुरुष बहुत से कार्य करता हुआ भी शांत रहता है॥५८॥

अकुर्वन्नपि संक्षोभाद् व्यग्रः सर्वत्र मूढधीः।

कुर्वन्नपि तु कृत्यानि कुशलो हि निराकुलः॥१८- ५८॥

18.59
Happy he stands, happy he sits, happy sleeps and happy he comes and goes. Happy he speaks, and happy he eats. Such is the life of a man at peace.॥59॥

शांत बुद्धि वाला पुरुष सुख से बैठता है, सुख से सोता है, सुख से आता-जाता है, सुख से बोलता है और सुख से ही खाता है॥५९॥

सुखमास्ते सुखं शेते सुखमायाति याति च।

सुखं वक्ति सुखं भुंक्ते व्यवहारेऽपि शान्तधीः॥१८- ५९॥

18.60
He who by his very nature feels no unhappiness in his daily life like worldly people, remains undisturbed like a great lake, all sorrow gone.॥60॥

जो बड़े सरोवर के समान शांत है और लौकिक आचरण करते हुए जिसको अन्य लोगों के समान दुःख नहीं होता, वह दुःख रहित ज्ञानी शोभित होता है॥६०॥

स्वभावाद्यस्य नैवार्ति- र्लोकवद् व्यवहारिणः।

महाहृद इवाक्षोभ्यो गतक्लेशः स शोभते॥१८- ६०॥

18.61
Even abstention from action leads to action in a fool, while even the action of the wise man brings the fruits of inaction.॥61॥

मूढ़ में निवृत्ति से भी प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है और धीर पुरुष की प्रवृत्ति भी निर्वृत्ति के समान फलदायिनी है॥६१॥

निवृत्तिरपि मूढस्य प्रवृत्ति रुपजायते।

प्रवृत्तिरपि धीरस्य निवृत्तिफलभागिनी॥१८- ६१॥

18.62
A fool often shows aversion towards his belongings, but for him whose attachment to the body has dropped away, there is neither attachment nor aversion.॥62॥

अज्ञानी पुरुष प्रायः गृह आदि पदार्थों से वैराग्य करता दिखाई देता है पर जिसका देह-अभिमान नष्ट हो चुका है, उसके लिए कहाँ राग और कहाँ विराग॥६२॥

परिग्रहेषु वैराग्यं प्रायो मूढस्य दृश्यते।

देहे विगलिताशस्य क्व रागः क्व विरागता॥१८- ६२॥

18.63
The mind of the fool is always caught in an opinion about becoming or avoiding something, but the wise man’s nature is to have no opinions about becoming and avoiding.॥63॥

अज्ञानी की दृष्टि सदा भाव या अभाव में लगी रहती है, पर धीर पुरुष तो दृश्य को देखते रहने पर भी आत्म स्वरूप को देखने के कारण कुछ नहीं देखती॥६३॥

भावनाभावनासक्ता दृष्टिर्मूढस्य सर्वदा।

भाव्यभावनया सा तु स्वस्थस्यादृष्टिरूपिणी॥१८- ६३॥

18.64
For the seer who behaves like a child, without desire in all actions, there is no attachment for such a pure one even in the work he does.॥64॥

जो धीर पुरुष सभी कार्यों में एक बालक के समान निष्काम भाव से व्यवहार करता है, वह शुद्ध है और कर्म करने पर भी उससे लिप्त नहीं होता॥६४॥

सर्वारंभेषु निष्कामो यश्चरेद् बालवन् मुनिः।

न लेपस्तस्य शुद्धस्य क्रियमाणोऽपि कर्मणि॥१८- ६४॥

18.65
Blessed is he who knows himself and is the same in all states, with a mind free from craving whether he is seeing, hearing, feeling, smelling or tasting.॥65॥

वह आत्मज्ञानी धन्य है जो सभी स्थितियों में समान रहता है। देखते, सुनते, छूते, सूंघते और खाते-पीते भी उसका मन कामना रहित होता है॥६५॥

स एव धन्य आत्मज्ञः सर्वभावेषु यः समः।

पश्यन् शृण्वन् स्पृशन् जिघ्रन्न् अश्नन्निस्तर्षमानसः॥१८- ६५॥

18.66
There is no man subject to samsara, sense of individuality, goal or means to the goal for the wise man who is always free from imaginations, and unchanging as space.॥66॥

धीर पुरुष सदा आकाश के समान निर्विकल्प रहता है। उसकी दृष्टि में संसार कहाँ और उसकी प्रतीति कहाँ? उसके लिए साध्य क्या और साधन क्या?॥६६॥

क्व संसारः क्व चाभासः क्व साध्यं क्व च साधनं।

आकाशस्येव धीरस्य निर्विकल्पस्य सर्वदा॥१८- ६६॥

18.67
Glorious is he who has abandoned all goals and is the incarnation of satisfaction, his very nature, and whose inner focus on the Unconditioned is quite spontaneous.॥67॥

जिस सन्यासी को अपने अखंड स्वरुप में सदा स्वाभाविक रूप से समाधि रहती है, जो पूर्ण स्वानंद स्वरूप है, वही विजयी है॥६७॥

स जयत्यर्थसंन्यासी पूर्णस्वरसविग्रहः।

अकृत्रिमोऽनवच्छिन्ने समाधिर्यस्य वर्तते॥१८- ६७॥

18.68
In brief, the great-souled man who has come to know the Truth is without desire for either pleasure or liberation, and is always and everywhere free from attachment.॥68॥

बहुत कहने से क्या लाभ? महात्मा पुरुष भोग और मोक्ष दोनों की इच्छा नहीं करता और सदा-सर्वत्र रागरहित होता है॥६८॥

बहुनात्र किमुक्तेन ज्ञाततत्त्वो महाशयः।

भोगमोक्षनिराकांक्षी सदा सर्वत्र नीरसः॥१८- ६८॥

18.69
What remains to be done by the man who is pure awareness and has abandoned everything that can be expressed in words from the highest heaven to the earth itself?॥69॥

महतत्त्व से लेकर सम्पूर्ण द्वैतरूप दृश्य जगत नाम मात्र का ही विस्तार है।
शुद्ध बोध स्वरुप धीर ने जब उसका भी परित्याग कर दिया फिर भला उसका क्या कर्तव्य शेष है॥६९॥

महदादि जगद्द्वैतं नाममात्रविजृंभितं।

विहाय शुद्धबोधस्य किं कृत्यमवशिष्यते॥१८- ६९॥

18.70
The pure man who has experienced the Indescribable attains peace by his own nature, realizing that all this is nothing but illusion, and that nothing is.॥70॥

यह सम्पूर्ण दृश्य जगत भ्रम मात्र है, यह कुछ नहीं है – ऐसे निश्चय से युक्त पुरुष दृश्य की स्फूर्ति से भी रहित हो जाता है और स्वभाव से ही शांत हो जाता है॥७०॥

भ्रमभृतमिदं सर्वं किंचिन्नास्तीति निश्चयी।

अलक्ष्यस्फुरणः शुद्धः स्वभावेनैव शाम्यति॥१८- ७०॥

18.71

There are no rules, dispassion, renunciation or meditation for one who is pure receptivity by nature, and admits no knowable form of being?॥71॥

जो शुद्ध स्फुरण रूप है, जिसे दृश्य सत्तावान नहीं मालूम पड़ता, उसके लिए विधि क्या, वैराग्य क्या, त्याग क्या और शांति भी क्या॥७१॥

शुद्धस्फुरणरूपस्य दृश्यभावमपश्यतः।

क्व विधिः क्व वैराग्यं क्व त्यागः क्व शमोऽपि वा॥१८- ७१॥

18.72

For him who shines with the radiance of Infinity and is not subject to natural causality there is neither bondage, liberation, pleasure nor pain.॥72॥

जो अनंत रूप से स्वयं स्फुरित हो रहा है और प्रकृति की पृथक् सत्ता को नहीं देखता है, उसके लिए बंधन कहाँ, मोक्ष कहाँ, हर्ष कहाँ और विषाद कहाँ॥७२॥

स्फुरतोऽनन्तरूपेण प्रकृतिं च न पश्यतः।

क्व बन्धः क्व च वा मोक्षः क्व हर्षः क्व विषादिता॥१८- ७२॥

18.73
Pure illusion reigns in samsara which will continue until self realisation, but the enlightened man lives in the beauty of freedom from me and mine, from the sense of responsibility and from any attachment. ॥73॥

बुद्धि के अंत तक ही संसार है और यह केवल माया का विवर्त है, इस तत्त्व को जानने वाला बुद्धिमान ममता, अहंकार और कामना से रहित होकर शोभित होता है॥७३॥

बुद्धिपर्यन्तसंसारे मायामात्रं विवर्तते।

निर्ममो निरहंकारो निष्कामः शोभते बुधः॥१८- ७३॥

18.74
For the seer who knows himself as imperishable and beyond pain there is neither knowledge, a world nor the sense that I am the body or the body mine.॥74॥

जो मुनि संताप से रहित अपने अविनाशी स्वरुप को जानता है, उसके लिए विद्या कहाँ और विश्व कहाँ अथवा देह कहाँ और मैं-मेरा कहाँ॥७४॥

अक्षयं गतसन्ताप- मात्मानं पश्यतो मुनेः।

क्व विद्या च क्व वा विश्वं क्व देहोऽहं ममेति वा॥१८- ७४॥

18.75
No sooner does a man of low intelligence give up activities like the elimination of thought than he falls into mental chariot racing and babble.॥75॥

जड़ बुद्धि वाला यदि निरोध आदि कर्मों को छोड़ देता है तो अगले क्षण बड़े-बड़े मनोरथ बनाने और प्रलाप करने लगता है॥७५॥

निरोधादीनि कर्माणि जहाति जडधीर्यदि।

मनोरथान् प्रलापांश्च कर्तुमाप्नोत्यतत्क्षणात्॥१८- ७५॥

18.76
A fool does not get rid of his stupidity even on hearing the truth. He may appear outwardly free from imaginations, but inside he is hankering after the senses still.॥76॥

अज्ञानी तत्त्व का श्रवण करके भी अपनी मूढ़ता का त्याग नहीं करता, वह बाह्य रूप से तो निसंकल्प हो जाता है पर उसके अंतर्मन में विषयों की इच्छा बनी रहती है॥७६॥

मन्दः श्रुत्वापि तद्वस्तु न जहाति विमूढतां।

निर्विकल्पो बहिर्यत्नाद- न्तर्विषयलालसः॥१८- ७६॥

18.77
Though in the eyes of the world he is active, the man who has shed action through knowledge finds no means of doing or speaking anything.॥77॥

ज्ञान से जिसका कर्म-बंधन नष्ट हो गया है, वह लौकिक रूप से कर्म करता रहे तो भी उसके कुछ करने या कहने का अवसर नहीं रहता (क्योंकि वह अकर्ता और अवक्ता है)॥७७॥

ज्ञानाद् गलितकर्मा यो लोकदृष्ट्यापि कर्मकृत्।

नाप्नोत्यवसरं कर्मं वक्तुमेव न किंचन॥१८- ७७॥

18.78
For the wise man who is always unchanging and fearless there is neither darkness nor light nor destruction, nor anything.॥78॥

जो धीर सदा निर्विकार और भय रहित है, उसके लिए अन्धकार कहाँ, प्रकाश कहाँ और त्याग कहाँ? उसके लिए किसी का अस्तित्व नहीं रहता॥७८॥

क्व तमः क्व प्रकाशो वा हानं क्व च न किंचन।

निर्विकारस्य धीरस्य निरातंकस्य सर्वदा॥१८- ७८॥

18.79
There is neither fortitude, prudence nor courage for the yogi whose nature is beyond description and free of individuality.॥79॥

योगी को धैर्य कहाँ, विवेक कहाँ और निर्भयता भी कहाँ? उसका स्वभाव अनिर्वचनीय है और वह वस्तुतः स्वभाव रहित है॥७९॥

क्व धैर्यं क्व विवेकित्वं क्व निरातंकतापि वा।

अनिर्वाच्यस्वभावस्य निःस्वभावस्य योगिनः॥१८- ७९॥

18.80
There is neither heaven nor hell nor even liberation during life. In a nutshell, in the sight of the seer nothing exists at all.॥80॥

योगी के लिए न स्वर्ग है, न नरक और न जीवन्मुक्ति ही। इस सम्बन्ध में अधिक कहने से क्या लाभ है योग की दृष्टि से कुछ भी नहीं है॥८०॥

न स्वर्गो नैव नरको जीवन्मुक्तिर्न चैव हि।

बहुनात्र किमुक्तेन योगदृष्ट्या न किंचन॥१८- ८०॥

18.81
He neither longs for possessions nor grieves at their absence.
The calm mind of the sage is full of the nectar of immortality.॥81॥

धीर का चित्त ऐसे शीतल रहता है जैसे वह अमृत से परिपूर्ण हो। वह न लाभ की आशा करता है और न हानि का शोक॥८१॥

नैव प्रार्थयते लाभं नालाभेनानुशोचति।

धीरस्य शीतलं चित्तम- मृतेनैव पूरितम्॥१८- ८१॥

18.82
The dispassionate does not praise the good or blame the wicked.
Content and equal in pain and pleasure, he sees nothing that needs doing.॥82॥

धीर पुरुष न संत की स्तुति करता है और न दुष्ट की निंदा।
वह सुख-दुख में समान, स्वयं में तृप्त रहता है।
वह अपने लिए कोई भी कर्तव्य नहीं देखता॥८२॥

न शान्तं स्तौति निष्कामो न दुष्टमपि निन्दति।

समदुःखसुखस्तृप्तः किंचित् कृत्यं न पश्यति॥१८- ८२॥

18.83
The wise man does not dislike samsara or seek to know himself. Free from pleasure and impatience, he is not dead and he is not alive.॥83॥

धीर पुरुष न संसार से द्वेष करता है और न आत्म-दर्शन की इच्छा। वह हर्ष और शोक से रहित है। लौकिक दृष्टि से वह न तो मृत है और न जीवित॥८३॥

धीरो न द्वेष्टि संसारमा- त्मानं न दिदृक्षति।

हर्षामर्षविनिर्मुक्तो न मृतो न च जीवति॥१८- ८३॥

18.84
The wise man stands out by being free from anticipation, without attachment to such things as children or wives, free from desire for the senses, and not even concerned about his own body.॥84॥

जो धीर पुरुष पुत्र-स्त्री आदि के प्रति आसक्ति से रहित होता है, विषय की उपलब्धि में उसकी प्रवृत्ति नहीं होती, अपने शरीर के लिए भी निश्चिन्त रहता है, सभी आशाओं से रहित होता है, वह सुशोभित होता है॥८४॥

निःस्नेहः पुत्रदारादौ निष्कामो विषयेषु च।

निश्चिन्तः स्वशरीरेऽपि निराशः शोभते बुधः॥१८- ८४॥

18.85
Peace is everywhere for the wise man who lives on whatever happens to come to him, going to wherever he feels like, and sleeping wherever the sun happens to set.॥85॥

जहाँ सूर्यास्त हुआ वहां सो लिया, जहाँ इच्छा हुई वहां रह लिया, जो सामने आया उसी के अनुसार व्यवहार कर लिया। इस प्रकार धीर सर्वत्र संतुष्ट रहता है॥८५॥

तुष्टिः सर्वत्र धीरस्य यथापतितवर्तिनः।

स्वच्छन्दं चरतो देशान् यत्रस्तमितशायिनः॥१८- ८५॥

18.86
Let his body rise or fall. The great souled one gives it no thought, having forgotten all about samsara in coming to rest on the ground of his true nature.॥86॥

जो अपने आत्मस्वरुप में विश्राम करते हुए सभी प्रपंचों का नाश कर चुका है, उस महात्मा को शरीर रहे अथवा नष्ट हो जाये – ऐसी चिंता भी नहीं होती॥८६॥

पततूदेतु वा देहो नास्य चिन्ता महात्मनः।

स्वभावभूमिविश्रान्ति- विस्मृताशेषसंसृतेः॥१८- ८६॥

18.87
The wise man excels in being without the sense of ‘me’. Earth, a stone or gold are the same to him.
The knots of his heart have been rent asunder, and he is freed from greed and blindness.॥87॥

ज्ञानी पुरुष संग्रह रहित, स्वच्छंद, निर्द्वन्द्व और संशय रहित होता है।
वह किसी भाव में आसक्त नहीं होता। वह तो केवल आनंद से विहार करता है ॥८७॥

अकिंचनः कामचारो निर्द्वन्द्वश्छिन्नसंशयः।

असक्तः सर्वभावेषु केवलो रमते बुधः॥१८- ८७॥

18.88
The wise one has no sense of “mine.”
To him earth, stone and gold are the same. The knots of his heart have unraveled.
He knows neither ignorance nor sorrow. He is excellent in every way.

धीर पुरुष की ह्रदय ग्रंथि खुल जाती है, रज और तम नष्ट हो जाते हैं।
वह मिट्टी के ढ़ेले, पत्थर और सोने को समान दृष्टि से देखता है, ममता रहित वह सुशोभित होता है॥८८॥

निर्ममः शोभते धीरः समलोष्टाश्मकांचनः।

सुभिन्नहृदयग्रन्थि- र्विनिर्धूतरजस्तमः॥१८- ८८॥

18.89
Who can compare with that contented, liberated soul who pays no regard to anything and has no desire left in his heart?॥89॥

जो इस दृश्य प्रपंच पर ध्यान नहीं देता, आत्म तृप्त है, जिसके ह्रदय में जरा सी भी कामना नहीं होती – ऐसे मुक्तात्मा की तुलना किसके साथ की जा सकती है॥८९॥

सर्वत्रानवधानस्य न किंचिद् वासना हृदि।

मुक्तात्मनो वितृप्तस्य तुलना केन जायते॥१८- ८९॥

18.90
Who but the upright man without desire knows without knowing, sees without seeing and speaks without speaking?॥90॥

कामनारहित धीर के अतिरिक्त ऐसा और कौन है जो जानते हुए भी न जाने, देखते हुए भी न देखे और बोलते हुए भी न बोले॥ ९०॥

जानन्नपि न जानाति पश्यन्नपि न पश्यति।

ब्रुवन्न् अपि न च ब्रूते कोऽन्यो निर्वासनादृते॥१८- ९०॥

18.91
Beggar or king, he excels who is without desire, and whose opinion of things is rid of ‘good’ and ‘bad’.॥91॥

राजा हो या रंक, जो कामना रहित है वह ही सुशोभित होता है।
जिसकी दृश्य वस्तुओं में शुभ और अशुभ बुद्धि समाप्त हो गयी है वह निष्काम है॥९१॥

भिक्षुर्वा भूपतिर्वापि यो निष्कामः स शोभते।

भावेषु गलिता यस्य शोभनाशोभना मतिः॥१८- ९१॥

18.92
There is neither dissolute behaviour nor virtue, nor even discrimination of the truth for the sage who has reached the goal and is the very embodiment of guileless sincerity.॥92॥

योगी निष्कपट, सरल और चरित्रवान होता है। उसके लिए स्वच्छंदता क्या, संकोच क्या और तत्त्व विचार भी क्या॥९२॥

क्व स्वाच्छन्द्यं क्व संकोचः क्व वा तत्त्वविनिश्चयः।

निर्व्याजार्जवभूतस्य चरितार्थस्य योगिनः॥१८- ९२॥

18.93
How can one describe what is experienced within by one desireless and free from pain, and content to rest in himself – and of whom?॥93॥

जो अपने स्वरुप में विश्राम करके तृप्त है, आशा रहित है, दुःख रहित है, वह अपने अन्तः करण में जिस आनंद का अनुभव करता है वह कैसे किसी को बताया जा सकता है॥९३॥

आत्मविश्रान्तितृप्तेन निराशेन गतार्तिना।

अन्तर्यदनुभूयेत तत् कथं कस्य कथ्यते॥१८- ९३॥

18.94
The wise man who is contented in all circumstances is not asleep even in deep sleep, not sleeping in a dream, nor waking when he is awake.॥94॥

धीर पुरुष पद-पद पर तृप्त रहता है। वह सोकर भी नहीं सोता, वह स्वप्न देखकर भी नहीं देखता और जाग्रत रहने पर भी नहीं जगता॥९४॥

सुप्तोऽपि न सुषुप्तौ च स्वप्नेऽपि शयितो न च।

जागरेऽपि न जागर्ति धीरस्तृप्तः पदे पदे॥१८- ९४॥

18.95
The seer is without thoughts even when thinking, without senses among the senses, without understanding even in understanding and without a sense of responsibility even in the ego.॥95॥

धीर पुरुष चिन्तावान होने पर भी चिंतारहित होता है, इन्द्रिय युक्त होने पर भी इन्द्रिय रहित होता है, बुद्धि युक्त होने पर भी बुद्धि रहित होता है और अहंकार सहित होने पर भी अहंकार रहित होता है॥९५॥

ज्ञः सचिन्तोऽपि निश्चिन्तः सेन्द्रियोऽपि निरिन्द्रियः।

सुबुद्धिरपि निर्बुद्धिः साहंकारोऽनहङ्कृतिः॥१८- ९५॥

18.96
A man with tranquil mind is neither happy nor unhappy, neither detached nor attached. He is neither seeking liberation nor liberated. He is nothing of these, nothing of these.॥96॥

धीर पुरुष न सुखी होता है और न दुखी, न विरक्त होता है और न अनुरक्त। वह न मुमुक्षु है और न मुक्त। वह कुछ नहीं है, कुछ नहीं है॥९६॥

न सुखी न च वा दुःखी न विरक्तो न संगवान्।

न मुमुक्षुर्न वा मुक्ता न किंचिन्न्न च किंचन॥१८- ९६॥

18.97
A man with tranquil mind does not get distracted by disturbances, in meditation he does not meditate. A blessed man neither gains stupidity by his worldly acts, nor does he gets wisdom.॥97॥

धीर पुरुष विक्षेप में विक्षिप्त नहीं होता, समाधि में समाधिस्थ नहीं होता। उसकी लौकिक जड़ता में वह जड़ नहीं है और पांडित्य में पंडित नहीं है॥९७॥

विक्षेपेऽपि न विक्षिप्तः समाधौ न समाधिमान्।

जाड्येऽपि न जडो धन्यः पाण्डित्येऽपि न पण्डितः॥१८- ९७॥

18.98
A man with tranquil mind remains established in his self. Being without any duty, he is at peace. He is always the same.As he is without greed, he does not recall what he has done or not done.॥98॥

धीर पुरुष सभी स्थितियों में अपने स्वरुप में स्थित रहता है। कर्तव्य रहित होने से शांत होता है। सदा समान रहता है। तृष्णा रहित होने के कारण वह क्या किया और क्या नहीं – इन बातों का स्मरण नहीं करता॥९८॥

मुक्तो यथास्थितिस्वस्थः कृतकर्तव्यनिर्वृतः।

समः सर्वत्र वैतृष्ण्यान्न स्मरत्यकृतं कृतम्॥१८- ९८॥

18.99
He is neither pleased when praised nor gets upset when blamed. He is neither afraid of death nor attached to life.॥99॥

वंदना करने से वह प्रसन्न नहीं होता, निंदा करने से क्रोधित नहीं होता। मृत्यु से उद्वेग नहीं करता और जीवन का अभिनन्दन नहीं करता॥९९॥

न प्रीयते वन्द्यमानो निन्द्यमानो न कुप्यति।

नैवोद्विजति मरणे जीवने नाभिनन्दति॥१८- ९९॥

18.100
A man at peace does not run off to popular resorts or to the forest. Wherever, he remains in whatever condition he exists with a tranquil mind.॥100॥

शांत बुद्धि वाला धीर न तो जनसमूह की ओर दौड़ता है और न वन की ओर। वह जहाँ जिस स्थिति में होता है, वहां ही समचित्त से आसीन रहता है॥१००॥

न धावति जनाकीर्णं नारण्यं उपशान्तधीः।

यथातथा यत्रतत्र सम एवावतिष्ठते॥१८- १००॥

19: Repose in the Self

Janaka said:

19.1
With the tongs of Truth
I have plucked the thorn of thinking from the innermost cave
of my heart.

19.2
Where is meditation, pleasure, prosperity or discrimination? Where is duality?
Where even is Unity?
I abide in the glory of Self.

19.3
Where is past and future,
or even present?
Where is space, or even eternity? I abide in the glory of Self.

19.4
Where is Self?
Where is not-Self?
Where is good and evil, confusion and clarity? I abide in the glory of Self.

19.5
Where is sleeping, dreaming, waking, or even the fourth state?
Where is fear?
I abide in the glory of Self.

19.6
Where is close or far,
in or out,
gross or subtle?
I abide in the glory of Self.

19.7
Where is life and death?
Where is the world and worldly relations? Where is distraction and stillness?
I abide in the glory of Self.

19.8
There is no need to talk about
the three ends of life.
To talk of yoga is purposeless.
Even talking about Truth is irrelevant. I rest in Self alone.

20: Liberation-in-Life

Janaka said:

20.1
Where are the elements, the body, the organs, the mind?
Where is the void?
Where is despair?
My nature is transparent clearness.

20.2
Where is scripture?
Where is Self-knowledge?
Where is no-mind?
Where is contentment and freedom from desire? I am empty of two-ness.

20.3
Where is Knowledge and ignorance? Where is “I”?
Where is “this”?
Where is “mine”?
Where is bondage and liberation? Self has no attributes.

20.4
Where is the unfolding of karma? Where is liberation-in-life,
or even liberation at death? There is only One.

20.5
Where is the doer or enjoyer?
Where is the origin or end of thought? Where is direct or reflected knowledge? There is no person here.

20.6
Where is the world?
Where is the seeker of liberation” Where is the contemplative? Where is the man of Knowledge? Where is the soul in bondage? Where is the liberated soul?
My nature is Unity.

20.7
Where are creation and destruction? Where is the end and the means? Where is the seeker?
Where is attainment?
I am One.

20.8
Where is the knower?
Where is knowing?
Where is the known, or knowledge itself? Where is anything?
Where is nothing?
I am pure Awareness.

20.9
Where is distraction, concentration, knowledge or delusion?
Where is joy or sorrow?
I am Stillness.

20.10
Where is the relative?
Where the transcendent? Where is happiness or misery? I am empty of thought.

20.11
Where is illusion?
Where is existence?
Where is attachment or non-attachment? Where is person?
Where is God?
I am Awareness.

20.12
Where is activity or inactivity? Where is liberation or bondage? I am timeless, indivisible.
I am Self alone.

20.13
Where are principles and scriptures? Where is the disciple or teacher? Where is the reason for life?
I am boundless, Absolute.

20.14
Where is existence or non-existence? Where is Unity or duality?
Nothing emanates from me.
No more can be said.


References

https://www.holybooks.com/wp-content/uploads/Ashtavakra-Gita-ebook.pdf

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